Wednesday, 6 November 2013

अरब में नष्ट होती प्राचीन इस्लामी धरोहरें




इस्लाम धर्म के प्रवर्तक पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद का जन्म अरब की सरज़मीन पर हुआ तथा यहीं रहकर उन्होंने इस्लाम धर्म का ज्ञान तथा शिक्षा का प्रचार व प्रसार शुरु किया। इस्लाम से जुड़ी कुछ ज़रूरी हिदायतें जैसे कि नमाज़, रोज़ा, हज,ज़कात इत्यादि की शुरुआत भी इसी मक्का व मदीना जैसे सऊदी अरब के पवित्र व ऐतिहासिक शहरों से की गई। हज़रत मोहम्मद का अपना परिवार भी अधिकांश तौर पर इन्हीं शहरों में रहा करता था। ज़ाहिर है चंूकि हज़रत मोहम्मद को इस्लाम धर्म के लोग अपना आखरी पैग़ंबर व इस्लाम का संस्थापक स्वीकार करते हैं।
अत: हज़रत मोहम्मद के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों व उनसे जुड़ी सभी यादगार चीज़ों जैसे उनके प्राचीन भवन, प्राचीन यादगार मस्जिदें, बगीचे, उनके उठने-बैठने, इस्लामी शिक्षा देने वाले व संपर्क में आने वाले तमाम ऐतिहासिक स्थल, उनसे संबंधिततमाम वस्तुएं आदि इस्लाम धर्म के मानने वालों के लिए दर्शनीय होती हैं। और आस्था की भावनाओं में डूबा हुआ कोई भी व्यक्ति ऐसी यादगार वस्तुओं व स्थलों को न केवल देखना चाहता है बल्कि उन्हें देखकर वह चूमने की कोशिश करता है, इन्हें छूना चाहता है तथा इन ऐतिहासिक वस्तुओं व स्थलों को अपने हाथों,चेहरे व शरीर के संपर्क में लाना चाहता है। और यही इस्लाम धर्म एक सर्वशक्तिमान अल्लाह के अतिरिक्त किसी दूसरे के समक्ष नतमस्तक होने की मनाही भी करता है।
पूरा इस्लामी जगत इस अति विवादित व संवेदनशील मुद्दे को लेकर दो भागों में विभाजित है। इसमें एक को हम वहाबी विचारधारा के नाम से जानते हैं। विशेषकर सऊदी अरब का शासक परिवार इसी वहाबी विचारधारा का अनुयायी है। यह विचारधारा पूरी सख्ती के साथ रूढ़ीवादी इस्लामी शिक्षाओं का पालन करने का संदेश देती है व पूरे मुस्लिम जगत से भी इसका पालन करने की उम्मीद करती है। खासतौर पर इस विषय पर कि इस्लाम के मानने वाले लोग अल्लाह के सिवा किसी अन्य के आगे न तो झुकें, न सजदा करें, न उसे चूमने या छूने की कोशिश करें।और जहां तक संभव है वहाबी विचारधारा के यह सऊदी शासक अपनी इस विचारधारा पर अमल करने व कराने तथा इनके लिए रास्ता हमवार करने की पूरी कोशिश भी करते हैं। इस वहाबी वर्ग को इस्लामी जगत में रूढ़ीवादी व कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा के रूप में देखा व समझा जाता है। इस्लाम में 73 समुदाय हैं। वहाबी के अतिरिक्त शेष 72 समुदाय जिनमें बरेलवी, शिया, हनफी, सूफी, अहमदिया, ख़ोजा, बोहरा जैसे अन्य समुदाय मुख्यतय: शामिल हैं। यह सभी समुदाय भी वहाबियों की तरह एक अल्लाह को ही सर्वोच्च व सर्वशक्तिमान मानते हैं। इसके अतिरिक्त यह सभी समुदाय कुरान, रोज़ा-नमाज़, हज-ज़कात आदि को भी मानते हैं तथा इनपर अमल करते हैं। हां इनके अमल करने के तौर-तरी$कों में ज़रूर कुछ $फकऱ् है। परंतु अल्लाह को तो सभी 73 वर्गों के लोग सर्वोच्च ही मानते हैं। इन 72 वर्गों के अनुयायी अल्लाह के बाद अपने रसूल, खलीफाओं,इमामों, उनके परिवार के लोगों,उनसे जुड़े यादगार स्थलों, उनकी प्राचीन इबादतगाहों व रिहायशी स्थानों जैसी सभी चीज़ों से अपना हार्दिक व भावनात्मक संबंध भी रखते हैं।और यही भावनात्मक लगाव आस्था का रूप धारण कर लेता है। परिणामस्वरूप इनसे लगाव रखने वाला कोई भी व्यक्ति उन्हें चूमना, देखना तथा प्राय: उसके आगे श्रद्धापूर्वक नतमस्तक भी होना चाहता है। उदाहरण के तौर पर इराक,ईरान, पाकिस्तान, भारत, अफगानिस्तान, तुर्की,सीरिया, जॉर्डन, फलीस्तीन जैसे और कई देशों में इस्लाम से जुड़ी ऐसी तमाम ऐतिहासिक धरोहरें हैं जिनका संबंध इस्लामी जगत के प्रमुख इमामों, संतों, फकीरों, खलीफाओं आदि से है।
पूरी दुनिया का मुसलमान ऐसी जगहों पर आता-जाता रहता है तथा अपनी श्रद्धा व आस्था के अनुसार इन जगहों पर नतमस्तक होता है मन्नतें व मुरादें मांगता है तथा अपनी श्रद्धा के पुष्प अर्पित करता है। ऐसा करने वाले समुदायों के लोग अपनी इन गतिविधियों को इस्लामी गतिविधियों का ही एक हिस्सा मानते हैं तथा ऐसा करना उनकी नज़रों में पूरी तरह इस्लामी कृत्य स्वीकार किया जाता है। जबकि ठीक इसके विपरीत वहाबी विचारधारा अल्लाह को सजदे यानी नमाज़ पढऩे के सिवा किसी भी अन्य स्थल, दरगाह, रौज़ा,मक़बरा या इमामबारगाहों आदि में चलने वाली गतिविधियों जैसे मजलिस,ताजि़यादारी,नोहा, मातम, कव्वाली, नात आदि चीज़ों को गैर इस्लामी मानते हैं तथा इसे शिर्क(अल्लाह के साथ किसी अन्य को शरीक करना)की संज्ञा देते हैं। दुनिया के अन्य देशों में वहाबी विचारधारा का प्रशासनिक मामलों में उतना प्रभाव नहीं जितना कि सऊदी अरब में है क्योंकि कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा का जन्म ही सऊदी अरब में हुआ।यही वजह है कि सऊदी शासक से लेकर वहां के अमीर लोग, अधिकांश प्रशासनिक अधिकारी, औद्योगिक घराने,उच्च व्यवसाय से जुड़े लोग आमतौर पर वहाबी विचारधारा के मानने वाले हैं। लिहाज़ा सऊदी अरब में इस विचारधारा के लोग अपनी मजऱ्ी के मुताबिक़ जब और जिस बहाने से चाहते हैं प्राचीन इस्लामिक धरोहरों को नष्ट करने से बाज़ नहीं आते। पूरा विश्व का प्रत्येक धर्म व समुदाय जहां अपनी प्राचीन यादगार ऐतिहासिक धरोहरों को संभालने तथा इन्हें सुरक्षित रखने पर ज़ोर देता है वहीं सऊदी अरब के वहाबी शासकों द्वारा गत् बीस वर्षों के भीतर इस्लाम, हज़रत मोहम्मद व उनके परिवार के सदस्यों से जुड़ी तकऱीबन 95 प्रतिशत यादगारों को ध्वस्त किया जा चुका है।
हालांकि दुनिया को दिखाने के लिए यह सऊदी शासक अपने मुख्य एजेंडे को ज़ाहिर नहीं करते और इन ऐतिहासिक स्थलों को गिराने के लिए हज यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं तथा दुनिया के मेहमानों के लिए व्यवस्था किए जाने की बात करते हैं। परंतु हकीकत में इनका गुप्त एजेंडा यही रहता है कि हज़रत मोहम्मद व उनके परिवार से संबंधित मकानों, मस्जिदों तथा अन्य यादगार स्थलों को केवल इसलिए मिटा दिया जाए ताकि वहां जाकर दुनिया के लोग नतमस्तक न हों, उन जगहों पर सजदा न करें व उन स्थानों को चूमें नहीं तथा इन ऐतिहासिक पवित्र स्थलों से अपने भावनात्मक लगाव का इज़हार न कर सकें। गोया वहाबियत अपनी धार्मिक रूढ़ीवादिता व पूर्वाग्रह के अनुसार ही दुनिया के अन्य मुसलमानों से भी अनुसरण कराना चाहती है।
सऊदी अरब विशेषकर मक्का व मदीना के हज सथल के चारों ओर होने वाली तोडफ़ोड का एक और कारण यह भी है कि वहाबी शाही घरानों से संबंधित तमाम लोग हज स्थल के चारों ओर गगनचुंबी इमारतें, पांचसितारा लग्ज़री होटल, शॉपिंग कॉम्पलेक्स आदि का निर्माण करा रहे हैं। यह सब भी हज यात्रियों की सुविधाओं तथा विदेशी पर्यटकों की मेहमानवाज़ी के नाम पर किया जा रहा है। परंतु इस विकास की बुनियाद में उन ऐतिहासिक धरोहरों को दफन किया जा रहा है जो सीधे तौर पर हज़रत मोहम्मद व उनके परिवार के लोगों से जुड़ी हैं तथा जिन्हें दुनिया का मुसलमान सऊदी अरब में हज के दौरान आने पर ढूंढना व देखना चाहता है। हालंाकि इन ऐतिहासिक धरोहरों को ध्वस्त करने का काम कोई नया नहीं है। पवित्र काबा का पुनर्निमार्ण, अब्दुल्ला बिन ज़ुबैर व मक्का के गवर्नर रहे हजाज बिन युसुफ के समय में प्राचीन भवन को तोडक़र किया गया। उसके पश्चात खलीफा अब्दुल मलिक बिन मरवान के निर्देशों पर पुन: कई यादगार धरोहरों को तोड़ दिया गया। उमर बिन क़त्ताब के समय में हज़रत मोहम्मद की मुख्य मस्जिद तोड़ी गई तथा इसे पुन: निर्मित किया गया। और इस प्रकार ऐतिहासिक यादगार धरोहरों को समाप्त किए जाने का सिलसिला आज तक जारी है। हद तो यह है कि अरब के इन शासकों ने हज़रत मोहम्मद की पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी घर बुलडोज़रों से गिरवा दिया तथा उस स्थान पर सार्वजनिक शौचालय बनवा दिया गया। हज़रत मोहम्मद द्वारा अपनी बेटी फातिमा को दहेज में दिया गया बग़ीचा जिसे बाग-ए-फदक के नाम से जाना जाता था उसे भी कई वर्ष पूर्व ढहाया जा चुका है तथा इस पर भी इमारतें बनाई जा चुकी हैं।
सवाल यह है कि ईश निंदा कानून के समर्थक, आपे्रशन लाल मस्जिद के विरोधी , सलमान रुश्दी के विरुद्ध फतवा जारी करने वाले, डेनमार्क में हज़रत मोहम्मद का कार्टून प्रकाशित करने वाले अखबार का विरोध करने वाले,समय-समय पर इस्लाम विरोधी शक्तियों के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाने वाले तथा बाबरी मस्जिद विध्वंस का विरोध करने वाले इस्लामी जगत के लोग इस्लाम संबंधित बुनियादी व यादगार ऐतिहासिक धरोहरों की रक्षा करने के लिए मिलकर आवाज़ें क्यों नहीं उठाते? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वहाबी विचारधारा सऊदी अरब में शासन में होने के चलते विकास व हजयात्री सुविधाओं के नाम पर अपने एजेंडे को लागू करती रहती है।परंतु यही विचारधारा जब अरब से बाहर निकलती है तो अफगानिस्तान के बामियान में तोपों से शांतिदूत महात्मा बुद्ध की मूर्तियां तोड़ती नज़र आती है तथा पाकिस्तान में यही विचारधारा इमामबाड़ों, दरगाहों, धार्मिक जुलूसों व मस्जिदों में आत्मघाती हमले कराती तथा बेगुनाह लोागों की हत्याएं करती नज़र आती है। पूरी दुनिया के मुसलमानों को इस विचारधारा के विरुद्ध संगठित होने की ज़रूरत है। अन्यथा अरब में नष्ट होती प्राचीन इस्लामिक धरोहरों की ही तरह यह विचारधारा कहीं इस्लाम धर्म के अस्तित्व के लिए भी घातक न साबित हो।
तनवीर जाफरी

Ziyarah {Visitation} and the Laws Pertaining to the Graves and Mosques According to the Shi`ah and Wahhabis

Ziyarah according to Sunnis and Shi`ah

As stated earlier, Wahhabis think that ziyarah, like shafa'ah, is a polytheistic act of seeking intermediation, and renders a person outside the pale of religion. This is while ziyarah, according to the Ahl as-Sunnah, has been considered permissible. In this context, as in many other beliefs as well, Wahhabism is at odds with the Ahl as-Sunnah.

By resorting to uncommon and strange statements, against which the Ahl as-Sunnah have also complained, the Wahhabis have endeavored to portray Wahhabism as a school of thought {madhhab}. But Muslims, the Ahl as-Sunnah in particular, cannot permit the inclusion of this group in the list of Muslim schools of thought {madhahib}.

The views of Ibn al-Qudamah

Ibn al-Qudamah, a leading figure and faqih of the Ahl as-Sunnah, while regarding ziyarah, like mourning, as consistent with the laws of Islam, elaborates that ziyarah is permissible for men while undesiderable {makruh} for women. In confirming this view, he has cited the following tradition:

لَعَنَ اللهُ زُوّارَاتِ القُبُورِ، الْمُتَّخِذَاتِ عَلَيْهِنَّ الْمَسَاجِدَ وَالسُّرَجَ.

Allah curses the visitors of the graves, especially women who light candles on the graves and take them as their place of prostration or mosque.

And he adds,
In this tradition, the phrase, “Allah curses…” implies aversion, and this aversion is more intense for women according to their welfare; for, it is possible that by going outside the house and to be present in the public, the rights of the husband might be violated. The reason behind the curse on female visitors {za'irin} is because of the fact that the people during the pre-Islamic period of ignorance {jahiliyyah} used to visit the graves. After sometime, they would construct statues and images on the grave. Then, these would be treated as idols and they would pay reverence in front of these. So, they were cursed and the visitation of the women was prohibited.[61]

In continuation, he writes:
Visiting graves is mustahabb for men. Regarding its being makruh or impermissible for women, there are two pertinent traditions. According to a tradition, it is mustahabb provided that, like men, they read beside the grave surahs of at-Tawhid (al-Ikhlas) and Ya Sin, and ayat al-Kursi, but according to another tradition, it is not permissible. In case of its permissibility, man and woman should recite this salutation:

السَّلاَمُ عَلَيْكُمْ أهْلَ الدِّيَارِ مِنَ الْمُؤمِنِينَ وَالْمُسْلِمِينَ، إنَّا إنْ شَاءَ اللهُ بِكُمْ لاَحِقُونَ، نَسْألُ اللهَ لَنَا وَلَكُمُ العَافِيَةَ.

“Peace be upon you, O believers and Muslims who inhabit these graves. We will join you, God willing. We pray Allah for wellbeing for you and us.”[62]

Ibn al-Qudamah does not regard the ziyarah as permissible for women, saying:
وَتُكْرَهُ لِلنِّسَاءِ، لأنَّ النَّبِيَّقَالَ: لَعَنَ اللهُ زُوَّارَاتِ القُبُورِ

Ziyarah for women is makruh (discommended) because the Prophet said, 'Allah curses the women who visit the graves'.

He believed that the Prophet (s) initially prohibited ziyarah for women and the phrase, “Allah curses…” bespeaks of this fact. But afterward, he considered the ziyarah for women as permissible, saying:

كُنْتُ نَهَيْتُكُمْ عَنْ زِيَارَةِ القُبُورِ، فَزُورُوهَا.

I was prohibiting you from visiting to grave in the past, but now you may do so.
Ibn al-Qudamah also says:

وَرَوَى التِّرْمِذِيُّ أنَّ عَائِشَةَ زَارَتْ قَبْرَ أخِيهَا.

Tirmidhi narrated that 'a'ishah visited the grave of her brother ('Abd ar-Rahman).
In the end, Ibn al-Qutadah concludes from the set of the decrees on the permissibility and honor (of ziyarah) in the quoted hadiths that it is loathsome for the women to perform ziyarah.[63]

 

The view of ‘Allamah Majlisi

In this regard, 'Allamah Majlisi expresses thus:
Ziyarah is good and recommended for men… But concerning the ziyarah for women, there are two pertinent opinions. One opinion is that ziyarah for women is loathsome… and the other opinion is that it is permissible provided that they cover themselves from the sight of strangers {ghayr mahram}.[64]

According to the belief of the Shi`ah, visiting the grave of the faithful is part of the Sunnah of the Holy Prophet (s) and all Muslims have consensus of opinion that at the time of death of a believer, he would go to his grave and express condolences to the bereaved ones. It is also stated in the Holy Qur'an, thus:

﴿وَلاَ تُصَلِّ عَلَى أَحَدٍ مِنْهُمْ مَاتَ أَبَدًا وَلاَ تَقُمْ عَلَى قَبْرِهِ إِنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَمَاتُوا وَهُمْ فَاسِقُونَ.

And never pray over any of them when he dies, nor stand on his graveside. They indeed defied Allah and His Apostle and died as transgressors.[65]

This verse is about the hypocrites {munafiqun} and expresses this point: O Prophet! Do not go to the graveside of the hypocrites as you are doing with respect to the graves of the faithful, and do not pray for their souls nor pray over their graves because they defied Allah and His Apostle and they are transgressors. That ziyarah is an indisputable principle and the presence of believers at the graveside of one another is unquestionable although there may possibly be differences of opinion among some Muslim schools of thought concerning the secondary features of ziyarah.

Visiting the grave as an excellent sunnah

It is thus recorded in history books attributed to the Ahl as-Sunnah: Every year the Prophet (s) would visit the graves of the martyrs {shuhada'} of the Battle of Uhud and recite this prayer {ziyarah}:

السَلاَمُ عَلَيْكُمْ بِمَا صَبَرْتُمْ فَنِعْمَ عُقْبَى الدَّارِ.

Peace be on you because you were constant, how excellent, is then, the issue of the abode.
It is also recorded that Abu Bakr, 'Umar and 'Uthman, like the Prophet (s), also used to perform ziyarah. The daughter of the Prophet of Islam (s), °adrat Fatimah az-Zahra ('a) would also visit the martyrs of Uhud two days a week. During his visit to the martyrs, especially in the ziyarah to Hamzah and Mus'ab ibn 'Umayr, the Holy Prophet (s) would recite this verse,

رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ.

Men who fulfill what they have pledged to Allah.[66]

In addition to this, it is thus recorded in the book, As-Sahih that Abu Sa'id al-Khudri would extend salutations to the grave of Hamzah… Umm Salamah, one of the honorable wives of the Prophet (s), and individuals such as Abu Hurayrah, Fatimah Khuza'iyyah, and 'Abd Allah ibn 'Umar al-Khattab also used to perform ziyarah to this group of martyrs.[67]

जन्नतुल बक़ीअ कि तबाही अफ़सोस!








अफ़सोस! बीती हुई सदी में 44 हिजरी 8 शव्वालुलमुकर्रम को आले सऊद ने बनी उमय्या व बनी अब्बास के क़दम से क़दम मिलाते हुए ख़ानदाने नबुव्वत व इसमत के लाल व गोहर की क़ब्रों को वीरान करके अपनी दुश्मनी का सबूत दिया जो सदियों से उसके सीनों में थी। आज आले मुहम्मद की क़ब्रें बे छत व दीवार हैं जबकि उनके सदके़ में मिलने वाली नेमतों से ये यहूदी नुमा सऊदी अपने महलों में मज़े उड़ा रहे हैं। इस चोरी के बाद सीना ज़ोरी का यह आलम है कि चंद ज़मीर व क़लम फ़रोश मुफ़ती अपने बे बुनियाद फ़त्वों की असास इन झूटी रिवायात को क़रार देते हैं जो बनी उमय्या और शाम के टकसाल में बनी,बिकी और ख़रीदी गई हैं ‘‘हसबोना किताबल्लाह’’ की दावेदार क़ौम आज क़ुरआन के खुले अहकाम को छोड़ कर अपनी काली करतूतों का जवाज़ नक़ली हदीसों के आग़ोश में तलाश कर रही है।


       सितम बालाये सितम ये कि उनके मुक़द्दस मज़ारों को तोड़ने के बाद अब इस ममलेकत से छपने वाली किताबों में, बक़ीअ में दफ़न उन बुज़ुर्गाने इस्लाम के नाम का भी जि़क्र नहीं होता, मुबादा कोई यह न पूछ ले कि फिर उनके रौज़े कहाँ गये।

सऊदी अरब में वज़ारते इस्लामीः
       उमूर औक़ाफ़ व दावत व इर्शाद की जानिब से हुज्जाजे किराम के लिये छपने और उनके दरमियान मुफ़्त तक़सीम होने वाले किताबचे ‘‘रहनुमाए हज व उमरा व ज़्यारते मस्जिदे नबवी’’ (मुसन्निफ़: मुतअद्दि उलमाए किराम, उर्दू तर्जुमा शेख़ मुहम्मद लुक़मान सलफ़ी1419हि0) की इबारत मुलाहज़ा होः

       ‘‘अहले बक़ीअः हज़रत उसमान, शोहदाए ओहद और हज़रत हमज़ा रज़ी अल्लाहु अन्हुम की क़ब्रों की ज़्यारत भी मसनून है... मदीना मुनव्वर में कोई दूसरी जगह या मस्जिद नहीं है कि जिसकी ज़्यारत जाइज़ हो इसलिये अपने आपको तकलीफ़ में न डालो और न ही कोई ऐसा काम करो जिसका कोई अज्र न मिले बल्कि उलटा गुनाह का ख़तरा है।’’

       यानी इस किताब के लिखने वाले ‘‘उलमा’’ की निगाह में बक़ीअ में जनाबे उसमान,शोहदाए ओहद और हज़रत हमज़ा की क़ब्रों के अलावा कोई और ज़्यारत गाह नहीं है जबकि तारीख़े इस्लाम को पढ़ने वाला एक मामूली तालिबे इल्म भी यह बात बख़ूबी जानता है कि इस क़ब्रिस्तान में आसमाने इल्म व इरफ़ान के ऐसे आफ़ताब व माहताब दफ़न हैं जिनके नूर से आज तक कायनात मुनव्वर व रौशन है।

       अब ऐसे वक़्त में जबकि वहाबी मीडिया यह कोशिश कर रही है कि जन्नतुल बक़ीअ में मदफ़ून, यज़दगाने इस्लाम के नाम को भी मिटाया जाये, ज़रूरी है कि तमाम मुसलमानों की खि़दमत में मज़लूमों का तज़केरा किया जाये ताकि दुश्मन आनी साजि़श में कामियाब न होने पाये, नीज़ यह भी वाज़ेह हो जाये कि इस्लाम की वह कौन सी मायानाज़ इफ़तिख़ार हस्तियाँ हैं जिनके मज़ार को वहाबियों की कम अक़ली व कज रवी ने वीरान कर दिया है लेकिन इस गुफ़त्गू से क़ब्ल एक बात क़ाबिले जि़क्र है कि यह क़ब्रिस्तान पहले एक बाग़ था, अरबी ज़बान में इस जगह का नाम ‘‘अलबक़ीअ अलग़रक़द’’ है, बक़ीअ यानी मुख़तलिफ़ दरख़्तों का बाग़ और ग़रक़द एक मख़सूस कि़स्म के दरख़्त का नाम है चूंकि इस बाग़ में एक तरह के दरख़्त ज़्यादा थे इस वजह से इसे बक़ीअ ग़रक़द कहते थे, इस बाग़ में चारों तरफ़ लोगों के घर थे जिनमें से एक घर जनाब अबुतालिब के फ़रज़न्दे अक़ील का भी था जिसे ‘‘दारे अक़ील’’ कहते थे, बाद में जब लोगों ने अपने मरहूमीन को इस बाग़ में अपने घरों के अन्दर दफ़न करना शुरू किया तो ‘‘दारे अक़ील’’ पैग़म्बरे इस्लाम स॰ के ख़ानदान का क़ब्रिस्तान बना और मक़बरा ‘‘बनी हाशिम’’ कहलाया। रफ़ता रफ़ता पूरे बाग़ से दरख़्त कटते गये और क़ब्रिस्तान बनता गया।

आखि़र वहाबियत के पैरोकार हज़रत हुसैन की शहादत पर गम क्यों नहीं मनाते?

पिछले दिनों पूरे विश्व में मोहर्रम के अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद को ताज़ा करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई। भारत में भी इस अवसर पर तरह-तरह के गमगीन आयोजन किए गए। इस वर्ष पहली बार मुझे भी बिहार के दरभंगा ज़िले में स्थित अपने गांव में मोहर्रम के दौरान रहने का अवसर मिला। यहां नवीं व दसवीं मोहर्रम के दिन अर्थात् मोहर्रम के शोकपूर्ण आयोजन के दो प्रमुख दिनों के दौरान कुछ अजीबोगरीब नज़ारे देखने को मिले जिन्हें अपने पाठकों के साथ सांझा करना चाहूंगी।
मोहर्रम के जुलूस में जहां शिया समुदाय के लोग अपना खून अपने हाथों से बहाते,अपने सीने पर मातम करते, हज़रत इमाम हुसैन की याद में नौहे पढ़ते तथा ज़ंजीरों व तलवारों से सीनाज़नी करते हुए अपने-अपने हाथों में अलम, ताबूत व ताज़िए लेकर करबला की ओर आगे बढ़ रहे थे वहीं इसी जुलूस को देखने वालों का भारी मजमा भी मेले की शक्ल में वहां मौजूद था। ज़ाहिर है इस भीड़ में अधिकांश संख्या उन पारंपरिक दर्शकों की थी जो इस अवसर पर प्रत्येक वर्ष इस जुलूस को देखने के लिए दूर-दराज से आकर यहां एकत्रित होते हैं। अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से होकर गुज़रने वाले इस जुलूस में भारी पुलिस प्रबंध, आला प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी तथा दंगा निरोधक दस्ते के विशेष पुलिस वाहन देखकर सहसा मुझे उत्सुकता हुई कि आिखर इमाम हुसैन का गम मनाने वालों तथा उनके नाम पर अपना खून व आंसू बहाने वालों को किस धर्म या जाति या समुदाय विशेष के लोगों से खतरा हो सकता है जिसके कारण इतने प्रशासन को भारी पुलिस बंदोबस्त करने पड़े? इसके पूर्व मैंने दिल्ली व इलाहाबाद जैसे शहरों में भी मोहर्रम के जलसे व जुलूस आदि बहुत निकट से देखे हैं। परंतु इस प्रकार दंगा निरोधक दस्ते के रूप में विशेष सुरक्षा बलों की तैनाती इत्तेफाक से कहीं नहीं देखी। जब इस पुलिस बंदोबस्त के कारणों की पड़ताल की गई तो पता यह चला कि हिंदू समुदाय के लेाग जहां मोहर्रम के अवसर पर जुलूस में अपना पूरा सहयोग देते हैं तथा जुलूस के अंत तक साथ-साथ रहते हैं वहीं इसी गांव के कुछ वहाबी सोच रखने वाले मुस्लिम समुदाय के ही लोग हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद में निकाले जाने वाले इस जुलूस का विरोध करने का प्रयास करते हैं। गोया मोहर्रम के इस शोकपूर्ण आयोजन को किसी दूसरे धर्म-जाति या समुदाय से नहीं बल्कि स्वयं को वास्तविक मुसलमान बताने वाले वहाबी वर्ग के लोगों से ही सबसे बड़ा खतरा है।
जब 10 मोहर्रम का यह जुलूस नौहा-मातम करता हुआ पूरे गांव का चक्कर लगाने के बाद इमामबाड़ा होते हुए करबला की ओर चला तो बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से इस जुलूस में हिंदू समुदाय के लोगों की सक्रिय भागीदारी देखने को मिली। इमामबाड़े के आगे से जुलूस का सबसे अगला छोर हिंदू समुदाय के लोगों ने ढोल नगाड़े व मातमी धुनें बजाने वाले साज़ के साथ संभाला तो हिंदुओं के एक दूसरे ग्रुप ने ‘झरनी’ क ेनाम से प्रसिद्ध मैथिली भाषा में कहा गया शोकगीत पढऩा शुरु किया। अपने दोनों हाथों में डांडियारूपी डंडे लिए लगभग आधा दर्जन हिंदू व्यकित शोक धुन के साथ झरनी पढ़ रहे थे। पता चला कि हिंदू समुदाय के लोग गत् सैकड़ों वर्षों से इस गांव में इसी प्रकार शिया समुदाय के साथ मिल कर जुलूस की अगवानी करते हैं तथा मैथिली भाषा में झरनी गाकर शहीद-ए-करबला हजऱत इमाम हुसैन को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। निश्चित रूप से सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश करने वाले ऐसे वातावरण की ही देन है कि इस क्षेत्र में आज तक कभी भी हिंदू-मुस्लिम तनाव देखने को नहीं मिला। जबकि वहीं पर शिया व सुन्नी समुदाय के बीच मधुर संबंध होने के बावजूद कुछ ऐसी शक्तियां तेज़ी से सिर उठाती जा रही हैं जोकि पारंपरिक सद्भाव को ठेस पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं।
इस तनावपूर्ण वातावरण को देखकर ज़ेहन में यह सवाल भी उठा कि आखि़र वहाबियत के पैरोकार हज़रत हुसैन की शहादत पर गम क्यों नहीं मनाते? आखि़र वहाबी विचारधारा के लोग भी तो हज़रत मोहम्मद के उतने ही बड़े चाहने वाले हैं जितने कि अन्य मुस्लिम वर्गों के लोग स्वयं को बताते हैं? यदि करबला की घटना का जायज़ा लिया जाए तो सीधेतौर पर यह नज़र आता है कि स्वयं को मुस्लिम शासक कहने वाले यज़ीद के लाखों की संख्या के सशस्त्र सीरियाई सैनिकों ने चौदह सौ वर्ष पूर्व पैगंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे तथा चौथे इस्लामी खलीफा हज़रत अली के पुत्र हज़रत इमाम हुसैन के छोटे से परिवार को बड़ी ही बेरहमी व बेदर्दी के साथ करबला के मैदान में केवल इसीलिए शहीद कर दिया था क्योंकि हज़रत इमाम हुसैन यज़ीद जैसे दुष्ट,क्रूर तथा अपराधी व पापी प्रवृति के शासक को सीरिया जैसे इस्लामी देश के सिंहासन पर बैठने की धार्मिक मान्यता नहीं दे रहे थे। ज़ाहिर है हज़रत इमाम हुसैन इस दूरअंदेशी के साथ ही ऐसा निर्णय ले रहे थे ताकि भविष्य में उनपर यह इल्ज़ाम न आने पाए कि उन्होंने यज़ीद जैसी गैर इस्लामी सोच रखने वाले दुष्ट शासक को इस्लामी साम्राज्य के बादशाह के रूप में मान्यता देकर इस्लाम को कलंकित व अपमानित कर दिया। वे इस्लाम को हज़रत मोहम्मद के वास्तविक व उदारवादी तथा परस्पर सहयोग की भावना रखने वाले इस्लाम के रूप में दुनिया के समक्ष पेश करना चाहते थे। हज़रत हुसैन की बेशकीमती कुर्बानी के बाद हुआ भी यही कि यज़ीद करबला की जंग तो ज़रूर जीत गया परंतु एक राक्षस व रावण की तरह उसके नाम का भी अंत हो गया। जिस प्रकार आज दुनिया में कोई अपने बच्चे का नाम रावण रखना पसंद नहीं करता उसी प्रकार कोई माता-पिता अपने बच्चे का नाम यज़ीद भी नहीं रखते।
फिर आिखर वहाबियत की विचारधारा गम-ए-हुसैन मनाने का विरोध क्यों करती है? वहाबियत क्यों नहीं चाहती कि यज़ीद के दुरूस्साहसों, उसकी काली करतूतों तथा उसके दुष्चरित्र को उजागर किया जाए तथा हज़रत इमाम हुसैन की अज़ीम कुर्बानी के कारणों को दुनिया के सामने पेश किया जाए? मैंने इस विषय पर भी गहन तफ्तीश की। वहाबियत के पैरोकारों ने अपने पक्ष में कई दलीलें पेश कीं। स्थानीय स्तर पर सुनी गई उनकी दलीलों का हवाला देने के बजाए मैं यहां वहाबी विचारधारा के देश के सबसे विवादित व्यक्ति ज़ाकिर नाईक के विचार उद्धृत करना मुनासिब समझूंगी। ज़ाकिर नाईक यज़ीद को न केवल सच्चा मुसलमान मानते हैं बल्कि उसे वह जन्नत का हकदार भी समझते हैं। ज़ािकर यज़ीद को बुरा-भला कहने वालों, उसपर लानत-मलामत करने वालों की भी आलोचना करते हैं। नाईक के अनुसार यज़ीद मुसलमान था और किसी मुसलमान पर दूसरे मुसलमान को लानत कभी नहीं भेजनी चाहिए। वहाबियत के भारत के प्रमुख स्तंभ व मुख्य पैरोकार समझे जाने वाले ज़ाकिर नाईक के यज़ीद के विषय में व्यक्त किए गए विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाबियत कैसी विचारधाराओं की पोषक है? यज़ीदियत की या हुसैनियत की? यहां ज़ाकिर नाईक के या यूं कहा जाए कि वहाबियत के पैराकारों के मुताबिक तो अजमल कसाब, ओसामा बिन लाडेन, एमन अल जवाहिरी तथा हाफ़िज़ सईद जैसे मानवता के पृथ्वी के सबसे बड़े गुनहगारों को भी सिर्फ इसलिए बुरा-भला नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह मुसलमान हैं?
वहाबी समुदाय के लोगों के मोहर्रम के जुलूस का विरोध करने के इन प्रयासों के बाद मेरी समझ में आया कि आखि़र पाकिस्तान,इराक और अफगानिस्तान में क्योंकर मोहर्रम के जुलूसों पर आत्मघाती हमले होते हैं? क्यों इमामबाड़ों, शिया, अहमदिया व बरेलवी समुदाय की मस्जिदों,दरगाहों व इमामबाड़ों को आत्मघाती हमलों का निशाना बनाया जाता है? दुनिया को भी यह समझने में अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए कि वास्तव में इस्लाम को हिंसा के रास्ते पर ले जाने वाली शक्तियां यज़ीद से लेकर अजमल कसाब तक तथा उस समय के यज़ीद के पैरोकारों से लेकर कसाब को जन्नत भेजने की कल्पना करने वालों तक कौन हैं? केवल संख्या बल के आधार पर किसी फैसले पर पहुंचना मुनासिब नहीं है। हुसैनियत उस इस्लाम का नाम है जिसने सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए एक क्रूर, शक्तिशाली शासक का डटकर विरोध कर इस्लाम के वास्तविक स्वरूप की रक्षा करने के लिए अपने परिवार के 72 सदस्यों को एक ही दिन में करबला में कुर्बान कर दिया और इस्लाम की आबरू बचा ली। जबकि यज़ीदियत इस्लाम के उस स्वरूप का नाम है जहां सत्ता व सिंहासन के लिए ज़ुल्म है, जब्र है, आतंक व हिंसा है तथा अपनी बात जबरन मनवाने हेतु खूनी खेल खेले जाने की एक पुरानी परंपरा है। अब इन में से इस्लाम का एक ही स्वरूप सत्य हो सकता है दोनों हरगिज़ नहीं। बेहतर हो कि इसका निष्पक्ष निर्णय दूसरे धर्म एवं समुदाय के पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी तथा चिंतक करें न कि वहाबियत, शिया, बरेलवी या अहमदिया समुदाय से संबंध रखने वाले मुल्ला-मौलवी लोग।

वहाबियत

पैग़म्बरों, ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों पर मज़ार एवं मस्जिद का निर्माण वह कार्य है जिसके बारे में वहाबी कहते हैं कि यह चीज़ धर्म में नहीं है और इसके संबंध में वे अकारण ही संवेदनशीलता दिखाते हैं। यह बात सबसे पहले वहाबियत की बुनियाद रखने वाले इब्ने तैय्मिया और उसके पश्चात उसके शिष्य इब्ने क़य्यम जौज़ी ने कही। उन्होंने क़ब्रों के ऊपर इमारत निर्माण करने को हराम और उसके ध्वस्त करने को अनिवार्य होने का फतवा दिया। इब्ने क़ैय्यम अपनी किताब "“ज़ादुल माअद फी हुदा ख़ैरिल एबाद"” में लिखता है क़ब्रों के ऊपर जिस इमारत का निर्माण किया गया है उसका ध्वस्त करना अनिवार्य है और इस कार्य में एक दिन भी विलंब नहीं किया जाना चाहिये। इस आधार पर मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब द्वारा भ्रष्ठ वहाबी पंथ की बुनियाद रखे जाने और सऊद परिवार द्वारा उसके समर्थन के बाद पवित्र स्थलों व स्थानों पर भारी पैमाने पर आक्रमण किये गये और वहाबियों ने महत्वपूर्ण इस्लामी स्थलों को ध्वस्त करना आरंभ कर दिया। वर्ष १३४४ हिजरी क़मरी अर्थात १९२६ में वहाबियों द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों और साथियों की क़ब्रों के ऊपर बने मज़ारों को ध्वस्त किये जाने को सबसे अधिक दुस्साहसी कार्य समझा जाता है जबकि वहाबी और उनके विद्वान आज तक अपने इस अमानवीय कृत्य का कोई तार्किक व धार्मिक कारण पेश नहीं कर सके हैं।
इस्लाम धर्म की निशानियों की सुरक्षा और उनका सम्मान महान ईश्वर की सिफारिश है। पवित्र क़ुरआन के सूरये हज की ३२वीं आयत में महान ईश्वर ने ईश्वरीय चिन्हों की सुरक्षा के लिए मुसलमानों का आह्वान किया है। इस संबंध में महान ईश्वर कहता है” जो भी ईश्वर की निशानियों व चिन्हों को महत्व दे तो यह कार्य दिलों में ईश्वरीय भय होने का सूचक है” जिस तरह से सफा, मरवा, मशअर, मिना और हज के समस्त संस्कारों को ईश्वरीय निशानियां बताया गया है उसी तरह पैग़म्बरों और महान हस्तियों की क़ब्रों का सम्मान भी ईश्वरीय धर्म इस्लाम के आदेशों का पालन है और यह कार्य महान ईश्वर से सामिप्य प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में है। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे पैग़म्बर व ईश्वरीय दूत ज़मीन पर महान व सर्वसमर्थ ईश्ववर की सबसे बड़ी निशानी थे और इन महान हस्तियों के प्रति आदरभाव एवं उनकी प्रतिष्ठा का एक तरीक़ा उनकी क़ब्रों की सुरक्षा है। दूसरी ओर पैग़म्बरों और महान हस्तियों की क़ब्रों की सुरक्षा एवं उसका सम्मान, इस्लाम धर्म के प्रति मुसलमानों के प्रेम, लगाव और इसी तरह इन महान हस्तियों द्वारा उठाये गये कष्टों के प्रति आभार व्यक्त करने का सूचक है। पवित्र क़ुरआन ने भी इस कार्य को अच्छा बताया है और समस्त मुसलमानों को आदेश दिया है कि वे न केवल पैग़म्बरे इस्लाम बल्कि उनके पवित्र परिजनों से भी प्रेम करें। पवित्र क़ुरआन के सूरये शूरा में महान ईश्वर कहता है"” हे पैग़म्बर कह दो कि मैंने जो ईश्वरीय आदेश तुम लोगों तक पहुंचाया है उसके बदले में मैं अपने निकट संबंधियों से प्रेम करने के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता”"
अब यहां पर पूछा जाना चाहिये कि क्या पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की रचनाओं, उनके जीवन स्थलों और उनकी क़ब्रों की सुरक्षा उनके प्रति सम्मान नहीं है?
प्रिय श्रोताओ यहां यह जानना रोचक होगा कि पवित्र क़ुरआन में भी न केवल इन निशानियों की सुरक्षा की सिफारिश की गयी है बल्कि पवित्र क़ुरआन ने क़ब्रों के ऊपर इमारतों के निर्माण को वैध भी बताया है। इस बात को "असहाबे कहफ़" की एतिहासिक घटना में भी देखा जा सकता है। जब असहाबे कहफ तीन सौ वर्षों के बाद नींद से जागे और उसके कुछ समय के पश्चात वे मर गये तो दूसरे लोग आपस में बात कर रहे थे कि उनकी क़ब्र के ऊपर इमारत का निर्माण किया जाये या नहीं। उनमें से कुछ लोगों ने कहा कि इन लोगों के सम्मान के लिए उनकी कब्रों के ऊपर इमारत का निर्माण करना आवश्यक है जबकि कुछ दूसरे कह रहे थे कि उनकी क़ब्रों पर मस्जिद का निर्माण किया जाना चाहिये ताकि उनकी याद बाक़ी रहे। इस विषय का वर्णन पवित्र क़ुरआन के सूरये कहफ की २१वीं आयत में भी आया है जो इस बात का सूचक है कि ब्रह्मांड के रचयिता को भले लोगों की क़ब्रों के ऊपर इमारत के निर्माण से कोई विरोध नहीं है क्योंकि यदि यह विषय सही नहीं होता तो निश्चित रूप से इसका वर्णन पवित्र कुरआन में होता। जैसाकि महान ईश्वर ने ईसाईयों और यहूदियों सहित पिछली कुछ जातियों के व्यवहार को नकारा और उसे सही नहीं बताया है। उदाहरण स्वरूप
महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरये हदीद की २७वीं आयत में कहता” है" जिस सन्यास को ईसाईयों ने उत्पन्न किया था हमने उसे अनिवार्य नहीं किया था यदि अनिवार्य किया था तो केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिए परंतु उन्होंने उसका वैसा निर्वाह नहीं किया जैसा निर्वाह करना चाहिये था" यदि ईश्वर महान हस्तियों एवं अपने दूतों की क़ब्रों पर इमारत या मस्जिद बनाये जाने का विरोधी होता तो निश्चित रूप से वह इस विषय का इंकार पवित्र क़ुरआन में करता और इसे अप्रिय कार्य घोषित करता।
अच्छे व भले लोगों की क़ब्रों पर इमारत या मज़ार का निर्माण प्राचीन समय से मुसलमानों से मध्य प्रचलित रहा है और उसके चिन्हों को समस्त इस्लामी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। शीया मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की क़ब्रों पर रौज़ों एवं ज़रीह अर्थात विशेष प्रकार की जाली का निर्माण किया। सुन्नी मुसलमानों ने भी शहीदों और अपनी सम्मानीय हस्तियों की क़ब्रों पर गुंम्बद का निर्माण करवाया तथा उनके दर्शन के लिए जाते हैं। सीरिया के दमिश्क नगर में जनाबे ज़ैनब सलामुल्लाह का पवित्र रौज़ा, मिस्र में वह रौज़ा जहां हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पावन सिर को दफ्न किया गया है, इराक के बग़दाद नगर में अबु हनीफा और अब्दुल क़ादिर गीलानी का मज़ार, समरकन्द में सुन्नी मुसलमानों की प्रसिद्ध पुस्तक” सही बुखारी के लेखक मोहम्मद बिन इस्माईल का मज़ार और महान हस्तियों की समाधियों के ऊपर बहुत सारी मस्जिदें व इमारतें इसके कुछ नमूने हैं। महान हस्तियों और धार्मिक विद्वानों की समाधियों के पास पवित्र स्थलों एवं मस्जिदों
का निर्माण इस्लामी मूल्यों की सुरक्षा एवं उनके प्रति मुसलमानों के कटिबद्ध रहने का सूचक है। मुसलमान/ विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम, ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों के दर्शन को महान ईश्वर से सामिप्य प्राप्त करने का एक मार्ग समझते हैं और इस दिशा में वे प्रयास करते हैं। इस मध्य पथभ्रष्ठ और रूढ़िवादी विचार रखने वाला केवल वहाबी पंथ है जो दूसरे समस्त मुसलमानों से विरोध और इस्लामी क्षेत्रों में पवित्र स्थलों व स्थानों को ध्वस्त करने का प्रयास करता है। पैग़म्बरे इस्लाम के सुपुत्र हज़रत इब्राहीम की क़ब्र और उस मस्जिद को ध्वस्त कर देना, जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा हज़रत हमज़ा की क़ब्र पर बनाया गया है, वे कार्य हैं जो महान हस्तियों की क़ब्रों पर बनाई गयी इमारतों के प्रति वहाबियों की उपेक्षा और उनके अपमान व दुस्साहस के सूचक हैं। वहाबिया ने अपने इन कार्यों से करोड़ों मुसलमानों की आस्थाओं को आघात पहुंचाया है और अपने घृणित कार्यों के औचित्य में कमज़ोर रवायतों व कथनों का सहारा लेते और उनकी ओर संकते हैं। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के अनुयाईयों ने न केवल इन पवित्र स्थलों को ध्वस्त किया है बल्कि इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि जो लोग महान हस्तियों की क़ब्रों की ज़ियारत करते हैं और उनकी क़ब्रों पर इमारत का निर्माण करते हैं वे काफिर व अनेकेश्वरवादी हैं। अलबत्ता इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय से, जिसके पास कोई तर्कसम्मत प्रमाण नहीं है, इस प्रकार के कार्य व विश्वास अपेक्षा से परे नहीं हैं। इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के विश्वासों का बहुत सतही होना, रूढ़िवाद और पक्षपात इसकी स्पष्ट विशेषताओं में से हैं और इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के विचारों में बुद्धि, सोच विचार और तर्क का कोई स्थान नहीं है।
मुसलमानों के लिए पैग़म्बरों, ईश्वरीय दूतों और महान हस्तियों की क़ब्रों की सुरक्षा न केवल सम्मानीय है बल्कि मुसलमानों के लिए उन घरों व स्थानों की सुरक्षा और उनका सम्मान विशेष महत्व रखता है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरी महान हस्तियां रही हैं। महान ईश्वर ने भी पवित्र क़ुरआन में सबका आह्वान किया है कि उन स्थानों की सुरक्षा की जाये जिसमें उसका गुणगान किया गया हो और मुसलमान इन स्थानों का सम्मान करें। तो मस्जिदों और पैग़म्बरों के घरों की भांति पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा और उनके निकट संबंधियों के मकान भी प्रतिष्ठित हैं क्योंकि ये वे घर हैं जहां ईश्वर के भले बंदों की उपासना एवं दुआ की आध्यात्मिक एवं मधुर ध्वनि गूंजी थी और ये वे स्थान हैं जहां फरिश्ते आवा-जाही करते थे। दूसरी ओर इन मूल्यवान धरोहरों की रक्षा से धर्म इस्लाम की विशुद्धता में वृद्धि होती है। यदि इन इमारतों और यादगार चीज़ों की अच्छी तरह देखभाव व सुरक्षा की जाये तो मुसलमान खुले मन बड़े गर्व से विश्व वासियों से कह सकते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए अनगिनत कठिनाइयां उठाई हैं। उन्होंने इसी साधारण और छोटे से घर में जीवन बिताया है, यही घर उनकी उपासना एवं दुआ का स्थल है परंतु बड़े खेद व दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इन मूल्यवान अवशेषों व धरोहरों को वहाबियों ने ध्वस्त करके उनकी प्रतिष्ठा को बर्बाद कर दिया। यह ऐसी स्थिति में है कि इस पथभ्रष्ठ सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने से पहले मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे ईश्वरीय दूतों व महान हस्तियों की यादों की सुरक्षा के लिए बहुत प्रयास किया व कष्ट कष्ट किया था।
उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनी से संबंधित पुस्तक के अतिरिक्त अंगूठी, जूता, दातून, तलवार और कवच जैसी पैग़म्बरे इस्लाम की व्यक्तिगत वस्तुओं यहां तक कि उस कुएं को भी सुरक्षित रखा गया था जिसमें से पैग़म्बरे इस्लाम ने पानी पिया था परंतु खेद की बात है कि इनमें से कुछ ही चीज़ें बाक़ी हैं। वहाबियों द्वारा इस्लामी इतिहास की महत्वपूर्ण चीज़ों को नष्ट करना वास्तव में पुरातत्व अवशेषों को मिटाना है जबकि समस्त राष्ट्र और धर्म विभिन्न व प्राचीन मूल्यों को सुरक्षित रखे हुए हैं और उसे वे अपनी प्राचीन संस्कृति का भाग बताते हैं। वहाबी, सोचे बिना और केवल अपनी भ्रांतियों के आधार पर मूल्यवान इस्लामी मूल्यों व धरोहरों को नष्ट कर रहे हैं। यह ऐसी स्थिति में है जब अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के आधार पर इस प्रकार की मूल्यवान इमारतों को युद्ध की स्थिति में भी नष्ट करना वैध व सही नहीं है। यहां रोचक बिन्दु यह है कि जहां भ्रष्ठ वहाबी संप्रदाय ने पैग़म्बरे इस्लाम, उनके निकट संबंधियों, साथियों तथा दूसरी मूल्यवान वस्तुओं को नष्ट कर दिया है वहीं यह धर्मभ्रष्ठ संप्रदाय इस्लाम और मुसलमानों के शत्रुओं के ख़ैबर नाम के दुर्ग को पवित्र नगर मदीना के पास यह कह कर रक्षा कर रहा है कि यह एक एतिहासिक धरोहर है।

सऊदी सरकार और वहाबी कठ्मुल्लाओं के हाथों इस्लामी धरोहरों की तबाही ( जन्नतुल बक़ी )

इतिहास केवल इतिहास की पुस्तकों  तक सीमित नहीं है बल्कि इसको किसी भी देश की एतिहासिक इमारतों और स्थानों पर भी देखा जा सकता है। इमारतें , प्राचीन क़ब्रिस्तान, हज़ारों वर्ष पुराने गुंबद और स्तंभ भी लिखित इतिहास की भांति महत्वपूर्ण हैं बल्कि इनका महत्व पुस्तकों से भी अधिक है। कुछ समय से सऊदी अरब में इस्लाम का जीवित व सदृश्य इतिहास जो ईश्वरीय धर्म इस्लाम की महा सांस्कृतिक धरोहर समझा जाता है, बर्बाद हो रहा है और सऊदी सरकार तथा वहाबी कठमुल्ला, मुसलमानों की इन एहतिहासिक धरोहरों को मिटा रही हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि सऊदी अरब के अधिकारी मक्के और मदीने में तीर्थयात्रियों की गुंजाइश बढ़ाने के उद्देश्य से मस्जिदुन्नबी और मस्जिदुल हराम को बढ़ा रहे है लेकिन इसमें वह इस बात का ध्यान नही रख रहें है कि एतिहासिक मह्तव वाले स्थानों को सही रखा जाए। लेबनान के दावते इस्लामी कालेज के प्रमुख शैख़ अब्दुन्नासिर अलजबरी ने इस संबंध में अलआलम टीवी चैनल से बात करते हुए कहा कि जब हम पवित्र नगर मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के रौज़े का दर्शन करते हैं तो हम देखते हैं कि खोखले कार्टूनों की भांति लंबी लंबी इमारतों से रौज़े को घेर दिया गया है और अपार अध्यात्मिक गुणों से संपन्न उन पवित्र स्थलों के अस्तित्व को मिटा दिया गया है जिनके माध्यम से हम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र चरित्र और व्यवहार तथा पवित्र क़ुरआन की आयतों को प्राप्त कर सकते हैं।
 वहाबी आस्था रखने वाली सऊदी अरब की सरकार अपने गठन के आरंभ से ही विभिन्न बहानों से धार्मिक स्थलों की पवित्रता की अनदेखी करती आ रही है। बहाबियों ने धर्म में नयी बातों के प्रविष्ट होने और अंधविश्वास से संघर्ष के बहाने अब तक पवित्र नगर मक्के और मदीने नगर में बहुत सी ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहरों को बर्बाद किया है। इस्लामी धरोहरों के विशेषज्ञ सामी ओजावी का मानना है कि कुछ समय बाद मक्के में प्राचीन इतिहास का कोई भी धरोहर दिखाई नहीं पड़ेगी। हालिया 50 वर्षो के दौरान मक्के और मदीने में वहाबी कठ्मुल्लाओं द्वारा 300 से अधिक धार्मिक और ऐतिहासिक इमारतों को ध्वस्त किया जा चुका है। इन धरोहरों को बर्बाद करने वाले पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम से संबंधित धरोहरों को मिटाने में भीसंकोच नहीं करते। धर्मभ्रष्ट वहाबी कठ्मुल्लाओं का मानना है कि यदि यह इमारतें बाक़ी रहीं तो संभव है कि दूसरे देशों के मुसलमानों द्वारा इनका सम्मान किया जाने लगे और यह कार्य उनकी दृष्टि में मूर्तिपूजा और ईश्वर के अतिरिक्ति किसी और की उपासना करने के समान है। जबकि यह केवल एक धर्मोंमादी गुट अर्थात वहाबियों की आस्था है और मुसलमान अपना यह दायित्व समझते हैं कि वह अपने प्यारे पैग़म्बर और अन्य हस्तियों का जिन्होंने इस्लाम धर्म को आगे बढ़ाने और स्थापित करने के लिए बहुत कठिनाईयां सहन कीं और अध्यात्म के श्रेष्ठ स्थानों पर हैं, सम्मान करें। सऊद परिवार की सरकार ने जहां भी पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनके प्रिय परिजनों और उनके साथियों से संबंधित कोई भी ऐतिहासिक धरोहर बच गये और वह घर जो पैग़म्बरे इस्लाम और उनके प्रिय परिजनों के साधारण और अध्यात्म से पूर्ण जीवन की निशानी थे, सभी को अतार्किक और निराधार बहानों से ध्वस्त कर दिया।
 शिया और सुन्नी दोनों ही समुदायों ने बहुत से इस्लामी इतिहासों का हवाला दिया है जिनके आधार पर ईश्वर के पवित्र घर काबे के सम्मान और उसके वैभव की सुरक्षा के लिए मस्जिदुल हराम के आस पास उससे ऊंची इमारतों का निर्माण सही नही है। कुछ वर्षों पूर्व तक मस्जिदुल हराम के प्रांगड़ से मिली हुई बड़ी इमारत सऊदी अरब के पूर्व नरेश मलिक फ़हद का महल था किन्तु हालिया दिनों में सऊदी परिवार ने और भी लंबा पैर फैला दिया है और वह मस्जिदुल हराम के निकट घंटाघर या क्लाक टावर के नाम से सबसे ऊंची इमारत का उद्धाटन करने वाले हैं। इस टावर के ऊपरी भाग में घड़ी लगी होगी और छोटे छोटे टावर उसके इर्द गिर्द बने होंगे। 11 जनवरी वर्ष 2012 को इसका उद्घाटन किया जाएगा। पश्चिमी इंजीनियरों की निगरानी में निर्माण होने वाले इस टावर में तीन हज़ार कमरों पर आधारित लगभग तीन भव्य होटल होंगे। इस टावर के निर्माण में तीन अरब डालर का ख़र्चा आएगा और इसमें मौजूद होटल बहुत ही सुन्दर और भव्य होंगे जिनके निकट पूंजीपति और धनवान व्यक्ति के अतिरिक्त कोई दूसरा फटक भी नहीं सकता।
यह शाहख़र्ची इस सीमा तक बढ़ गयी कि सऊदी अरब के पूर्व नरेश की पुत्री बसमा बिन्ते सऊद ने भी इसका विरोध किया है। वह घंटाघर की योजना में एक बड़े घोटाले का रहस्योद्घाटन करती हुई कहती हैं कि मस्जिदुल हराम के विस्तार और विश्व के सबसे बड़े घंटाघर के निर्माण की हालिया परियोजना में चालीस करोड़ डालर का घोटाला हुआ है किन्तु इस समाचार को सेन्सर कर दिया गया, यहां तक कि सऊदी नरेश भी चुप्पी साध गये और उन्होंने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। यह चालीस करोड़ डालर जापानी, फ़्रांसीसी, चीनी इत्यादि कंपनियों की जेबों में गये। बसमा सऊदी सरकार द्वारा इस घंटाघर के निर्माण के दूसरे आयामों की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि मक्के की गलियों में यदि हम देखें तो हमें बहुत सरलता से इतने अधिक निर्धन और दरिद्र लोग मिल जाएंगे कि जिनकी संख्यां पर हम विश्वास नहीं कर सकते, उनके पेट भी ख़ाली हैं जबकि हम घंटाघर, महल, विला इत्यादि के निर्माण को जारी रखे हुए हैं।
 सऊदी परिवार के प्रचारों के आधार पर विश्व के सबसे बड़े घंटाघर के निर्माण का औचित्य कि जिसके ऊपरी भाग में 43 बाई 45 मीटर की घड़ी लगी होगी, यह है कि जीएमटी अर्थात ग्रीनविच मीन टाईम के मुक़ाबले में मक्के की घड़ी समय के स्रोत में परिवर्तित हो। जबकि इस कार्य को अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर होना चाहिए ताकि सभी लोग इसको स्वीकार करें या कम से कम इस्लामी देश ही इसे स्वीकार करें। आले सऊद इस बात पर गर्व कर रहे हैं कि यह घंटाघर रात में 17 किलोमीटर की दूरी से और दिन में 11 किलोमीटर की दूरी से दिखाई देगा किन्तु उन्होंने इस बात का विवरण नहीं दिया कि इस घंटाघर का निर्माण मस्जिदुल हराम में और काबे के निकट ही करना क्यों आवश्यक है और क्या यह मस्जिदुर हराम का अपमान नही है।
 पवित्र स्थलों का विस्तार और उसे सजाना संवारना कभी भी बुरा कार्य नहीं है किन्तु इस शर्त के साथ कि इस्लामी और ऐतिहासिक धरोहर इसके बहाने ध्वस्त न की जाएं और इनका अपमान न किया जाए। मस्जिदुल हराम के भी विस्तार की योजना बन रही है और समय के बीतने के साथ साथ, नई इमारतों के निर्माण व विस्तार के विभिन्न कार्यक्रमों से प्राचीन धरोहर और मोहल्ले समाप्त हो जाएंगे। मस्जिदुल हराम के क्षेत्र में पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के घर, अरक़म नामक गृह जो रसूले इस्लाम के प्रचार का स्थल था, हज़रत अली अलैहिस्सलाम का जीवन स्थल, सयदु शोहदा हज़रत हमज़ा का जन्म स्थल और इस प्रकार के बहुत से पवित्र स्थल जिनमें से प्रत्येक इस्लामी इतिहास को बयान करने वाले और इस्लामी निशानियों में से थे, दिखाई ही नहीं पड़ते।
मदीना नगर की इस्लामी धरोहरें भी आले सऊद और वहाबियों की उपस्थिति के आरंभ से ही ध्वस्त की जाती रही हैं। विध्वंस की सबसे भयानक और सबसे भयावह त्रासदी बक़ीअ नामक क़ब्रिस्तान का ध्वस्त किया जाना थी। जन्नतुल बक़ीअ में पैग़म्बरे इस्लाम के माता पिता, उनके चार पौत्रों और बहुत से साथियों और महापुरुषों के पवित्र पार्थिव शरीर दफ़्न हैं। वर्ष 1926 में वहाबियों ने इस क़ब्रिस्तान को ध्वस्त कर दिया था। वहाबियों ने विभिन्न धरोहरों और गुंबदों को ध्वस्त कर दिया और मूल्यवान चीज़ों को लूट लिया। मदीना नगर के अन्य प्रतीकों में से बनी हाशिम का मोहल्ला था जो मस्जिदुन्नबी के निकट स्थित था, इस पवित्र मोहल्ले का भी अस्तित्व मिटा दिया गया है। यह मोहल्ला पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के प्रिय परिजनों के रहने के स्थान और अध्यात्मिक स्थल के रूप में विभिन्न कालों में सुरक्षित रहा, यहां तक कि इस मोहल्ले के कुछ घरों की मरम्मत भी करायी गयी किन्तु सऊदी अरब पर आले सऊद के वर्चस्व के समय बनी हाशिम का मोहल्ला धीरे धीरे बर्बाद होने लगा यहां तक कि वर्ष 1985 से 1987 तक सऊदी सरकार ने मस्जिदुन्नबी के विस्तार के बहाने इस मोहल्ले की समस्त ऐतिहासिक निशानियों व धरोहरों को पूर्ण रूप से ध्वस्त कर दिया।
 सऊदी अरब से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ओकाज़ ने भी हालिया दिनों में अपनी रिपोर्ट में धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहरों पर सऊदी अधिकारियों की अनदेखी पर आपत्ति जताई। इस समाचार पत्र की रिपोर्ट में हज़रते हमज़ा की मस्जिद की चिंताजनक स्थिति की ओर संकेत किया गया है। यह समाचार पत्र आगे लिखता है कि नगर पालिका ने लोगों के विश्राम के लिए न तो कुर्सियां लगवाई और न ही वृक्ष लगवाए और न ही छायादार छतरी लगवाई, इसी प्रकार ओहद के ऐतिहासिक पर्वत पर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ीयां भी नहीं लगाई गयी है। इसके कारण ओहद के पर्वत की ऐतिहासिक निशानियां धीरे धीरे ख़राब हो रही हैं। सऊदी सरकार अपने प्रचारों में यह दिखाने का प्रयास करती है कि वह मस्जिदुल हराम और मस्जिदुन्नबी पर विशेष ध्यान देती है जबकि अन्य धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। इस संबंध में दूसरा प्रमाण, जबले नूर, ग़ारे हिरा, हज़रत अबूतालिब के क़ब्रिस्तान और अन्य स्थलों की अनदेखी है। पवित्र स्थलों को ध्वस्त करना या उनकी देखभाल न करना इस सीमा तक बढ़ गया है कि लंदन विश्वविद्यालय के अफ़्रीक़ी व पूर्वी धरोहर के संकाय में इस्लामी धरोहर व कला के विशेषज्ञ जेफ़री किंग इस बारे में कहते हैं कि सऊदी अरब में इस्लामी धरोहरों और स्थलों का भविष्य बहुत दुःखद है। इससे संबंधित अधिकारी इन प्राचीन और धार्मिक धरोहरों के ऐतिहासिक मूल्यों और महत्त्व को नहीं जानते इसीलिए वे इसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करते हैं।
इस्लाम धर्म के उदय होने के आरंभ से अब तक मुसलमान किसी भी स्थिति में मक्के और मदीने की यात्रा करते हैं और पवित्र स्थलों विशेष ईश्वर के घर काबे के आध्यात्म व प्रकाश से लाभान्वित होते हैं। काबे की ओर जाने वाले समस्त तीर्थयात्रियों का मानना है कि ख़ानए काबा वैभव और विशेष आध्यात्म का स्वामी है और ऊंची ऊंची और भव्य इमारतों का निर्माण, मस्जिदुल हराम के प्रांगड़ में बने इस प्रकाशमयी घर के वैभव को कम नहीं कर सकता क्योंकि यह पवित्र स्थल ईश्वर के आदेश पर ईश्वर के दो महान दूतों हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल के हाथों बना और यह ईश्वरीय संदेश वहि के उतरने का स्थान है। प्रत्येक दशा में सऊदी अरब में कुछ पवित्र स्थलों का ध्वस्त किया जाना जो इस्लाम के इतिहास का सदृश्य व सही दर्पण प्रस्तुत करता है और इसी प्रकार आर्थिक लाभ के लिए निरंकुश निर्माण कार्य जो मक्के और मदीने में पश्चिमी इंजीनियरों और विशेषज्ञों की निगरानी में किया जा रहा है, बहुत अधिक हानि का कारण बना है। इस प्रकार से कि धीरे धीरे मुसलमानों के यह दोनों पवित्र नगर अपनी विदित व इस्लामी पहचान को खोते जा रहे हैं और यूरोपीय वास्तुकला से संपन्न नगरों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। इसीलिए विश्व के मुसलमान सऊदी अरब में अपने पवित्र व ऐतिहासिक स्थलों के प्रति चिंतित हैं और उनका यह मानना है कि सऊदी परिवार विश्वासघाती हैं और इन इस्लामी धरोहरों को सुरक्षित रखने के योग्य नहीं हैं

वहाबियत, वास्तविकता व इतिहास

वहाबियत की आधारशिला रखने वाले इब्ने तैमिया ने अपने पूरे जीवन में बहुत सी किताबें लिखीं और अपनी आस्थाओं का अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है। उन्होंने ऐसे अनेक फ़त्वे दिए जो उनसे पहले के किसी भी मुसलमान धर्मगुरुओं ने नहीं दिए विशेष रूप से ईश्वर के बारे में। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर वैसा ही है जैसा कि क़ुरआन की कुछ आयतों में उल्लेख है हालांकि ऐसी आयतों की क़ुरआन की दूसरी आयतें व्याख्या करती हैं और पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के कथनों से भी ऐसी आयतों की तार्कपूर्ण व्याख्या की गयी है। किन्तु इब्ने तैमिया और दूसरे सलफ़ी क़ुरआन की आयतों की विवेचना व स्पष्टीकरण से दूर रहे और इस प्रकार ईश्वर के अंग तथा उसके लिए परिसिमा को मानने लगे।
इब्ने तैमिया और उनके प्रसिद्ध शिष्य इब्ने क़य्यिम जौज़ी ने अपनी किताबों में इस बिन्दु पर बल दिया है कि ईश्वर सृष्टि की रचना करने से पूर्व ऐसे घने बादलों के बीच में था कि जिसके ऊपर और न ही नीचे हवा थी, संसार में कोई भी वस्तु मौजूद नहीं थी और ईश्वर का अर्श अर्थात ईश्वर की परम सत्ता का प्रतीक विशेष स्थान पानी के ऊपर था।
इस बात में ही विरोधाभास मौजूद है। क्योंकि एक ओर यह कहा जा रहा है कि ईश्वर इससे पहले कि किसी चीज़ को पैदा करता, घने बादलों के बीच में था जबकि बादल स्वयं ईश्वर की रचना है। इसलिए यह कैसे माना जा सकता है कि रचना अर्थात बादल रचनाकार से पहले सृष्टि में मौजूद रहा है? क्या इस्लामी शिक्षाओं से अवगत एक मुसलमान इस बात को मानेगा कि महान ईश्वर को ऐसे अस्तित्व की संज्ञा दी जाए जो ऐसी बेबस हो कि घने बादलों में घिरी हो और बादल उस परम व अनन्य अस्तित्व का परिवेष्टन किए हो? इस्लाम के अनुसार कोई भी वस्तु ईश्वर पर वर्चस्व नहीं जमा सकती क्योंकि क़ुरआनी आयतों के अनुसार ईश्वर का हर वस्तु पर प्रभुत्व है और पूरी सृष्टि उसके नियंत्रण में है। इब्ने तैमिया के विचारों का इस्लामी शिक्षाओं से विरोधाभास पूर्णतः स्पष्ट है।
वह्हाबियों की आस्थाओं में एक आस्था यह भी है कि ईश्वर किसी विशेष दिशा व स्थान में है। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर के शरीर के अतिरिक्त व्यवहारिक विशेषता भी है और शारीरिक तथा बाह्य दृष्टि से भी आसमानों के ऊपर है। इबने तैमिया में अपनी किताब मिन्हाजुस्सुन्नह में इस विषय का इस प्रकार उल्लेख किया हैः हवा, ज़मीन के ऊपर है, बादल हवा के ऊपर है, आकाश, बादलों व धरती के ऊपर हैं और ईश्वर की सत्ता का प्रतीक अर्श आकाशों के ऊपर है और ईश्वर इन सबके ऊपर है। इसी प्रकार वे पूर्वाग्रह के साथ कहते हैः जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर दिखाई देगा किन्तु ईश्वर के लिए दिशा को सही नहीं मानते उनकी बात बुद्धि की दृष्टि से अस्वीकार्य है।
प्रश्न यह उठता है कि इब्ने तैमिया का यह दृष्टिकोण क्या पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक पंद्रह से स्पष्ट रूप से विरुद्ध नहीं है जिसमें ईश्वर कह रहा हैः पूरब पश्चिम ईश्वर का है तो जिस ओर चेहरा घुमाओगे ईश्वर वहां है। ईश्वर हर चीज़ पर छाया हुया व सर्वज्ञ है। और इसी प्रकार सूरए हदीद की आयत क्रमांक चार में ईश्वर कह रहा हैः जहां भी हो वह तुम्हारे साथ है।
अब सूरए सजदा की इस आयत पर ध्यान दीजिएः ,,,और फिर उसका संचालन अपने हाथ में लिया और उससे हटकर न तो कोई तुम्हारा संरक्षक और न ही उसके मुक़ाबले में कोई सिफ़ारिश करने वाला है।
सूरए हदीद की आयत क्रमांक 4 में ईश्वर कह रहा हैः फिर सृष्टि का संचालन संभाला और जो कुछ ज़मीन में प्रविष्ट करती है उसे जानता है।
और अब सूरए ताहा की आयत क्रमांक 5 पर ध्यान दीजिएः वही दयावान जिसके पास पूरी सृष्टि की सत्ता है।
वह्हाबी इन आयतों के विदित रूप के आधार पर ईश्वर की सत्ता के प्रतीक के लिए विशेष रूप व आकार को गढ़ लिया है कि जिसके सुनने पर शायद हंसी आ जाए। वह्हाबियों का मानना है कि ईश्वर का भार बहुत अधिक है और वह अर्श पर बैठा है। इब्ने तैमिया कि जिसका सलफ़ी अनुसरण करते हैं, अनेक किताबों में लिखा है कि ईश्वर अपने आकार की तुलना में अर्श के हर ओर से अपनी चार अंगुली अधिक बड़ा है। इब्ने तैमिया कहते हैः पवित्र ईश्वर अर्श के ऊपर है और उसका अर्श गुंबद जैसा है जो आकाशों के ऊपर स्थित है और अर्श ईश्वर के अधिक भारी होने के कारण ऊंट की काठी भांति आवाज़ निकालता है जो भारी सवार के कारण निकालता है।
इब्ने क़य्यिम जौज़ी जो इब्ने तैमिया के शिष्य व उनके विचारों के प्रचारक तथा मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पौत्र भी हैं, अपनी किताबों में ईश्वर का इस प्रकार उल्लेख किया है कि सुनने वाले उसके बचपन की कलपनाएं याद आ जाती हैं। वे कहते हैः ईश्वर का अर्श कि जिसकी चौड़ाई दो आकाशों के बीच की दूरी जितनी है, आठ भेड़े के ऊपर है कि जिनके पैर के नाख़ुन से घुटने तक की दूरी भी दो आकाशों के बीच की दूरी की भांति है। ये भेड़े एक समुद्र के ऊपर खड़े हैं कि जिसकी गहराई दो आकाशों के बीच की दूरी की जितनी है और समुद्र सातवें आकाश पर स्थित है। ये बातें ऐसी स्थिति में हैं कि न तो पवित्र क़ुरआन की आयतें, न पैग़म्बरे इस्लाम और न ही उनके सदाचारी साथियों ने इस प्रकार की निराधार व अतार्किक विशेषताओं का उल्लेख किया बल्कि उनका मानना है कि ईश्वर कैसा है इसका उल्लेख असंभव है।
हर चीज़ से ईश्वर के आवश्यकतामुक्त होने की आस्था धर्म व पवित्र क़ुरआन की महत्वपूर्ण शिक्षाओं में है और पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में इस विषय पर चर्चा की गयी है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 263 में ईश्वर कह रहा हैः ईश्वर आवश्यकतामुक्त और सहनशील है। इसी प्रकार सूरए बक़रा की आयत क्रमांक 267 में हम पढ़ते हैः ईश्वर आवश्यकतामुक्त और सारी प्रशंसा उसी से विशेष हैं।
पवित्र क़ुरआन की इन आयतों में इस प्रकार के अर्थ को केवल चिंतन मनन द्वारा ही समझा जा सकता है। पवित्र क़ुरआन मानव समाज को निरंतर तर्क का निमंत्रण देता है और दावा करने वालों से कह रहा है कि यदि उनके पास अपनी बात की सत्यता का कोई तर्क है तो उसे बयान करे।
उदाहरण स्वरूप तर्क की दृष्टि से यह कैसे माना जा सकता है कि ईश्वर आठ भेड़ों पर सवार है। क्योंकि यदि ईश्वर वास्तव में आठ भेड़ों पर सवार होगा तो उसे उनकी आवश्यकता होगी। जबकि अनन्य ईश्वर पवित्र है इस त्रुटि से कि उसे किसी चीज़ की आवश्यकता पड़े। इसी प्रकार इस भ्रष्ट विचार के आधार पर कि ईश्वर का अर्श आठ भेड़ों पर है, यह निष्कर्श निकलेगा कि ये आठ भेड़ें भी जब से ईश्वर है और जब तक रहेगा, मौजूद रहेंगी। जबकि ईश्वर सूरए हदीद की चौथी आयत में स्वयं को हर चीज़ से पहले और हर चीज़ के बाद बाक़ी रहने वाला अस्तित्व कह रहा है और सलफ़ियों के आठ भेड़ों सहित दूसरी कहानियों से संबंधित किसी बात का उल्लेख नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहै अलैहे व आलेही व सल्लम ईश्वर की विशेषता के संबंध में कहते हैः तू हर चीज़ से पहले था और तुझसे पहले कोई वस्तु नहीं थी और तू सबके बाद भी है।
अर्श पर ईश्वर के होने का अर्थ ईश्वर की सत्ता है जो पूरी सृष्टि पर छायी हुयी है और पूरे संसार का संचालन उसके हाथ में है। अर्श से तात्पर्य यह है कि ईश्वर का पूरी सृष्टि पर नियंत्रण और हर वस्तु पर उसका शासन है जो अनन्य ईश्वर के अभिमान के अनुरूप है। इसलिए अर्श पर ईश्वर के होने का अर्थ सभी वस्तुओं चाहे आकाश या ज़मीन, चाहे छोटी चाहे बड़ी चाहे महत्वपूर्ण और चाहे नगण्य हो सबका संचालन उसके हाथ में है। परिणामस्वरूप ईश्वर हर चीज़ का पालनहार और इस दृष्टि से वह अकेला है। रब्ब से अभिप्राय पालनहार और संचालक के सिवा कोई और अर्थ नहीं है किन्तु सलफ़ी ईश्वर के अर्श की जो विशेषता बयान करते हैं वह न केवल यह कि धार्मिक मानदंडों व बुद्धि से विरोधाभास रखता है बल्कि उसे बकवास के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। सलफ़ी इसी प्रकार ईश्वर के अर्श से ऐसे खंबे अभिप्राय लेते हैं कि यदि उनमें से एक न हो तो ईश्वर का अर्श ढह जाएगा और ईश्वर उससे ज़मीन पर गिर पड़ेगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम जिन्हें पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने ज्ञान के नगर का द्वार कहा है, ईश्वर के अर्श की व्याख्या इन शब्दों में करते हैः ईश्वर ने अर्श को अपनी सत्ता के प्रतीक के रूप में बनाया है न कि अपने लिए कोई स्थान।
अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करें
hindi.irib.ir/2010-06-06-08-34-03/वहाबियत,-वास्तविकता-व-इतिहास

मौलाना अली नक़ी नकवी द्वारा लिखित पुस्तक “ रद्दे वहाबियत ”


ये पुस्तक वहाबियों के फितने और गलत धारणाओं का पोल खोलता है

Tawassul {Resorting To Intermediation}, Death and Shafa‘Ah {Intercession} According to the Shi`ah and the Wahhabis

Tawassul according to the Wahhabis

In this chapter, tawassul {resorting to intermediation} according to Wahhabism shall be examined. The 'ulama' of this sect believe that Tawassul to other than God, paying homage {ziyarah} to a grave and praying in a place where there is a grave in front of the person praying are not consistent with Tawhid in Lordship. According to them, the requisite of Tawhid is that one should not resort to the intermediation of other than God even if he is the Prophet of Islam (s), because tawassul, shafa'ah {intercession} and the like are outside the Sunnah of the Prophet and the pious predecessors {as-Salaf as-salih}, and the Qur'an also regards this belief as polytheism.[29]

It is thus stated in the book, al-Tawhid bi'l-Lughati al-Farisiyyah:
Seeking the help of other than God is polytheism and seeking refuge in other than God is also within the sphere of polytheism… The Words {kalimat} of God are identical with the uncreated {qadim} Essence of God. So, for this reason, one may entreat {istighathah} these Words otherwise, such act of entreating will be regarded as polytheism.[30]

In refuting this proposition, it must be stated first of all that the pertinent verse had been revealed with respect to the jinn. Concerning the circumstances surrounding the revelation of this verse, it must be said that the Arabs used to believe that the jinn live in the desert, and during the pre-Islamic period of ignorance {al-Jahiliyyah}, they used to turn to the “chief of the jinn” at the time of going out of the city for help, addressing him thus: “O chief of the jinn! Save us from the evil of the jinn and preserve us from their annoyance.”

Of course, resorting to the jinn is absolutely unlawful because God has explicitly prohibited this practice. In addition to this, seeking help from anyone who denies God is obviously more so. Secondly, there are a lot of differences between the prophets {anbiya'} and messengers {rusul} who have direct connection with God, and the receivers of the divine revelation, on one hand, and the jinn who do not recognize God on the other. Therefore, the Islamic belief demands that we have to beseech and entreat God, the Exalted, and seek the intercession of those who are closer to Him.

We have mentioned earlier the viewpoint of the Wahhabi 'ulama' regarding the status of tawassul to other than God. Now, we shall examine their reasons:
First reason: By citing as proof the noble verses,

﴿قُلْ ادْعُوا الَّذِينَ زَعَمْتُمْ مِنْ دُونِهِ فَلاَ يَمْلِكُونَ كَشْفَ الضُّرِّ عَنكُمْ وَلاَ تَحْوِيلاً. أُوْلَئِكَ الَّذِينَ يَدْعُونَ يَبْتَغُونَ إِلَى رَبِّهِمْ الْوَسِيلَةَ أَيُّهُمْ أَقْرَبُ وَيَرْجُونَ رَحْمَتَهُ وَيَخَافُونَ عَذَابَهُ.

Say, 'Invoke those whom you claim {to be gods} besides Him. They have no power to remove your distress nor to bring about any change {in your state}. They {themselves} are the ones who supplicate, seeking recourse to their Lord, whoever is nearer {to Him}, expecting His mercy and fearing His punishment.' Indeed your Lord's punishment is a thing to beware of,[31]

they have concluded that one should never seek help and resort to anyone other than God.
Analysis of the above verses

If one contends oneself with the literal meaning and not take into consideration other Qur'anic verses, these two verses will conform to the statements of the Wahhabi 'ulama' because based on these words of God, when man abandons the “nearer means” (that is, God Himself) in order to get closer to God and resorts to a “remote means” (that is, “other than God” {min duni allahi}) and one who has no power to remove distress and the like, it will fall within the spheres of polytheism in Lordship {shirk-e rububi}.

It must be noted, however, that there are other verses indicating that with God's permission, one may also resort to other than God, in which case, the issue of polytheism would be irrelevant, and one could turn for help from the individuals approved by God. If these 'ulama' had only paid attention to these other verses, they would have never committed such a glaring mistake.

Turning for help {istimdad} of the weak to the strong

In principle, tawassul is one of the laws of creation and it means resorting to a superior means in order to attain an objective. One manifestation of tawassul is a child's tawassul to his mother when something happens to him. This meaning is true in all spheres of human life—social, political, ideological, material, and spiritual. Tawassul to God is the same tawassul to that which is perfect in power and force. Tawassul to the prophets and the saints of God is a case of the tawassul of the weak to the strong, because the prophets are stronger than other human beings. One may resort to the prophets and saints for help and take their practical conduct, which we called sunnah, as models for ourselves.

Tawassul in the Qur’an

Many verses of the Qur'an and Prophetic traditions speak about the subject of tawassul to the awliya'. As an example, one may refer to the verses related to the sons of Ya'qub (Jacob) ('a):

﴿قَالُوا يَا أَبَانَا اسْتَغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا إِنَّا كُنَّا خَاطِئِينَ. قَالَ سَوْفَ أَسْتَغْفِرُ لَكُمْ رَبِّي إِنَّهُ هُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ.

They said, 'Father! Plead {with Allah} for forgiveness of our sins! We have indeed been erring'. He said, 'I shall plead with my Lord to forgive you; indeed He is the All-forgiving, the All-merciful'.[32]

In these verses, the sons of Ya'qub ('a) resorted to the intermediation of their father. They had committed mistakes so many times; they had annoyed and disturbed two prophets of God (Ya'qub and Yusuf (Joseph) ('a)), and transgressed the command of God by annoying their parents and telling lies. Since those mistakes required the sons to seek forgiveness, they took their father as their intercessor; so this action has not been denied or rejected in the Qur'an.

Since God does not reproach the sons of Ya'qub for resorting to two persons of those who are near to Him {muqarrabun}, it can be concluded that there is nothing wrong in entreating the Prophet (s) especially since the eminence of his rank and the loftiness of his station are not hidden to anyone.
The other verse which may be cited is the following:

﴿وَلَوْ أَنَّهُمْ إِذْ ظَلَمُوا أَنفُسَهُمْ جَاءُوكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللَّهَ وَاسْتَغْفَرَ لَهُمُ الرَّسُولُ لَوَجَدُوا اللَّهَ تَوَّابًا رَحِيمًا.

Had they, when they wronged themselves, come to you and pleaded Allah for forgiveness, and the Apostle had pleaded for forgiveness for them, they would have surely found Allah All-clement, All-merciful.[33]

It can be deduced from this verse that the intermediation of the Holy Prophet (s) can also be resorted to in asking God for forgiveness of sins.

It is possible to criticize the deduction based on the first verse with the answer that the tawassul of the sons of Ya'qub ('a) to their father had been confined to their own time; that is, one may seek the help of the living and not the dead. We shall talk about this point later on in the section concerning tabarruk.

What can be inferred from the second verse is that tawassul to the Prophet (s) is in a general sense. That is, it includes both the time when the Prophet (s) was alive and the time afterward. And there is no reason to distinguish between tawassul during and after his lifetime.

Since the following verse reproaches tawassul to idols and regards it as a form of polytheism, some individuals might cite it as proof that tawassul to other than God leads to misguidance:

﴿وَقَالُوا لاَ تَذَرُنَّ آلِهَتَكُمْ وَلاَ تَذَرُنَّ وَدًّا وَلاَ سُوَاعًا وَلاَ يَغُوثَ وَيَعُوقَ وَنَسْرًا. وَقَدْ أَضَلُّوا كَثِيرًا وَلاَ تَزِدْ الظَّالِمِينَ إِلاَّ ضَلاَلاً.

They say, 'Do not abandon your gods. Do not abandon Wadd, nor Suwa', nor Yaghuth, Ya'uq and Nasr,' and they have certainly led many astray. Do not increase the wrongdoers in anything but error'.[34]

In reply, it must be said that if what is meant by “other than God” are idols, then one cannot find fault with this statement, but if “other than God” includes the prophets and awliya', then it would be contrary to the truth because these beloved ones are approved by God and are vicegerents of Allah {khulafa' Allah}. Idols are in contrast and contradiction with God while the prophets ('a) and saints are concordant with Him and are means of His grace. In the same manner, idols are a source of deviation from God while the prophets ('a) are means of guidance and righteousness. In sum, the comparison between tawassul to the prophets ('a) and tawassul to the idols is an asymmetrical and false analogy.

The other point is that an idol is basically an object of worship and not a means of nearness to God {taqarrub}. There are two types of means of nearness to God: One is legitimate, referring to the prophets ('a) and the saints, and the other is illegitimate such as idols and the like which religion has made forbidden to man.

Death according to the Wahhabis

There are different viewpoints concerning death, and we shall deal with the viewpoint of the Wahhabis on the subject. Ibn Qayyim al-Jawziyyah is reported to have said:

Tawassul to the dead, even if he be the Prophet of Islam (s), is an act of polytheism because based on the statement of the Qur'an, he is dead and extinct:

﴿إِنَّكَ مَيِّتٌ وَإِنَّهُمْ مَيِّتُونَ.

You will indeed die and they {too} will die indeed.[35]

He then continues:
Entreating the dead and uttering words such as: “O my master, O the Messenger of Allah! Help me,” “O my master 'Ali ibn Abi Talib! Assist me,” and the like are acts of polytheism.[36]
It is indeed amazing that Ibn Qayyim al-Jawziyyah and the Wahhabis could have no belief in the purgatorial life {hayat al-barzakh}, thinking that the dead cannot establish spiritual relations with others, while the Qur'an affirms that those who are in the barzakh are alive.[37] How could the Wahhabis regard the martyrs {shuhada'} as dead while the Qur'an says,

﴿وَلاَ تَحْسَبَنَّ الَّذِينَ قُتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ أَمْوَاتًا بَلْ أَحْيَاءٌ عِنْدَ رَبِّهِمْ يُرْزَقُونَ.

Do not suppose those who are slain in the way of Allah to be dead; rather they are living and provided for near their Lord.[38]

Accordingly, how could Shaykh Muhammad ibn 'Abd al-Wahhab also say that “Anyone who dies would be annihilated,”36 while the Holy Qur'an says,

﴿فَكَشَفْنَا عَنْكَ غِطَاءَكَ فَبَصَرُكَ الْيَوْمَ حَدِيدٌ.

We have removed your veil from you, and so your sight is acute today.[39]
In another place, it states thus,

﴿وَلَهُمْ رِزْقُهُمْ فِيهَا بُكْرَةً وَعَشِيًّا.

And therein they will have their provision morning and evening.[40]

Since there is morning and evening in the world of barzakh according to the verse quoted, and that the dead have provisions, those who are in the world of sojourn (barzakh) cannot be regarded as nonexistent {ma'dum}. Of course, morning and evening are special characteristics of barzakh because there is no sun on the Day of Resurrection which could portray this case. So, death is not equivalent to nonexistence, and the theory of the Wahhabis is consequentially rendered false.

The permission to resort to the sacred personages

In the following verse, the Holy Qur'an regards it permissible and acceptable to resort to and seek the intermediation of the chosen ones of God in seeking nearness to Him {taqarrub}:

﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَابْتَغُوا إِلَيْهِ الْوَسِيلَةَ وَجَاهِدُوا فِي سَبِيلِهِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ.

O you who have faith! Be wary of Allah, and seek the means of recourse to Him, and wage jihad in His way, so that you may be felicitous.[41]

Although in this verse seeking the means of recourse is discussed in a general sense, based on the other proofs and pieces of evidence mentioned in the Holy Qur'an and the traditions, one of its vivid manifestations is the prophets and saints. Therefore, the purport of this verse may be expressed in the following words:

Though approaching God is the outcome of grace, you have to observe God-wariness {taqwa} perfectly and since it is possible that the persons resorted to have no independence of their own and have obtained such station through sincerity {ikhlas} and God-wariness {taqwa}, you also have to maintain God-wariness in resorting to them.

Istimdad and tawassul to the living ones

Seeking help and assistance from the living is permissible and it cannot be treated as a form of polytheism. This is a point which has been endorsed and affirmed by stories in the Qur'an. For example, when Hadrat Yusuf (Joseph) ('a) was in prison he requested his cellmate, that if the latter was released, he should mention his case to the king:

﴿اذْكُرْنِي عِنْدَ رَبِّكَ.

Mention me to your master.[42]

Or, when Hadrat Musa and Khidr ('a) arrived at a certain village, they made a request to the inhabitants of the village, hence:

﴿فَانطَلَقَا حَتَّى إِذَا أَتَيَا أَهْلَ قَرْيَةٍ اسْتَطْعَمَا أَهْلَهَا.

So they went on. When they came to the people of a town, they asked its people for food.[43]

It can be said that the acts of these three great personalities, apart from not being acts of polytheism, they are rational and customary behaviors, having no inconsistency with their infallibility {ismah}. Also, in confirming this statement, the following verse, which is addressed to the Prophet (s), can be cited as proof:

﴿وَلَوْ أَنَّهُمْ إِذْ ظَلَمُوا أَنفُسَهُمْ جَاءُوكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللَّهَ وَاسْتَغْفَرَ لَهُمُ الرَّسُولُ لَوَجَدُوا اللَّهَ تَوَّابًا رَحِيمًا.

Had they, when they wronged themselves, come to you and pleaded Allah for forgiveness, and the Apostle had pleaded for forgiveness for them, they would have surely found Allah all-clement, all-merciful.[44]

Based on this verse, the Prophet (s) has been granted the permission to be the intercessor of sinners. According to the Shi`ah, this intercession is still valid and is not confined to the lifetime of the Prophet (s).

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...