यह हमारे सबूत हैं...
पेश इस्लामी दौर की कुछ मिसाले जहां कब्रों पर मस्जिदें बनाई गईं:
ज़ैल की फेहरिस्त सिर्फ इशाराती है और इसे मुकम्मल न समझा जाए:
1. हज़रत दाउद (अ) की कब्र अल-कुद्स, इसराइल में
2. हज़रत इब्राहीम (अ) की कब्र हेब्रोन, इसराइल में
3. हज़रत इसहाक (अ) की कब्र हेब्रोन में
4. हज़रत याकूब (अ) की कब्र हेब्रोन में
5. हज़रत यूसुफ (अ) की कब्र हेब्रोन में
ये तमाम कब्रें पत्थर की बुलंद तामीरात थीं और इस्लाम के अल-कुद्स में फैलने के बाद भी इसी हालत में रहीं।
(कश्फ अल-इरतियाब, सफ़ा ३०६)
यहां तक कि इब्न-ए-तैमिय्याह ने भी एतिराफ किया कि हज़रत इब्राहीम (अ) की कब्र पर मोज़ूद ढांचा उस वक्त भी मोज़ूद था जब इस्लाम हेब्रोन तक पहुंचा और सहाबा की मौजूदगी में किसी ने इस पर एतिराज़ न किया। सिर्फ दरवाज़ा मक़बरा (हज़रत इब्राहीम (अ)) का ४०० हिजरी तक बंद रहा।
(मजमअ अल-फतावा इब्न तैमिय्याह, जिल्द २७, सफ़ा १४१)
कुछ मिसाले जो दिखाती हैं कि कब्रें तामीर करना इस्लाम की शुरुआत से ही जारी है:
1. वह कमरा जिसमें हज़रत मुहम्मद (स) की कब्र मोजूद है। (अखबार अल-मदीना, जिल्द १, सफ़ा ८१)
शुरू में, जहां हज़रत मुहम्मद (स) की कब्र है उसके इर्द-गिर्द कोई दीवार न थी। ये उमर बिन खत्ताब थे जिन्होंने पहली मर्तबा दीवारें बनाईं और इसे एक इमारत की शकल दी।
(वफ़ा अल-वफ़ा बि इख्तियार अल-मुस्तफ़ा, जिल्द २, सफ़ा ५२१)
हकीक़त में, हज़रत मुहम्मद (स) की कब्र के इर्द-गिर्द दीवारों की तामीर और दोबारा तामीर एक जारी अमल था जिसमें आयशा, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (मदीना में उनकी मुख्तसर हुकूमत के दौरान) और मुतवक्किल शामिल थे।
2. हज़रत हमज़ा (अ) की कब्र पर मस्जिद की तामीर। (इज़ा)
3. हज़रत मुहम्मद (स) के बेटे हज़रत इब्राहीम (अ) की कब्र, मुहम्मद बिन अली बिन ज़ैद के घर में। (इज़ा)
4. ३७२ हिजरी में हज़रत अली (अ) की कब्र पर इमारत की तामीर। (सिर-ए-आलम-ए-नुबला, जिल्द १, सफ़ा २५१)
5. ३८६ हिजरी में ज़ुबैर की कब्र पर इमारत की तामीर। (अल-मुंतज़िम, जिल्द १४, सफ़ा ३७७)
6. दूसरी सदी में साद बिन माज़ की कब्र पर इमारत की तामीर। (सिर-ए-आलम-ए-नुबला, जिल्द १३, सफ़ा २८५)
7. २५६ हिजरी में सहीह बुखारी के मुअल्लिफ़ इमाम बुखारी की कब्र की सजावट। (अल-तबक़ात अल-शाफ़िया अल-कुबरा, जिल्द २, सफ़ा २३४)
8. अब्बासी ख़लीफा हारून अल-रशीद ने दूसरी सदी में हज़रत अली (अ) की कब्र पर एक गुम्बद तामीर किया। (सिर-ए-आलम-ए-नुबला, जिल्द १६, सफ़ा २५१)
अगर कब्रों को ज़मीन के बराबर करना इस्लाम में लाज़मी होता तो हारून अल-रशीद यकीनन ऐसा करते, उनके नबी (स) के अहल-ए-बैत (अ) से अदावत के बावजूद, हम देखते हैं कि उन्होंने एक गुम्बद तामीर किया।
हदीसों की तशरीह जो कब्रों की तामीर को ममनूअ क़रार देती हैं:
कुरआन मजीद और नबी करीम (स) की सुन्नत से वाज़ेह होता है कि कब्रों की तामीर जायज़ और हत्ता कि मस्तहब है, खासतौर पर मोअज़्ज़ज शख्सियतों की कब्रों के लिए। लिहाज़ा कुछ हदीसों में ममनूअ होने का तास्सुर क्यूं है?
यह जवाब उन लोगों के लिए वाज़ेह है जो इस तरह की हदीसों की तशरीह समझते हैं। कई उलेमा ने अपने कामों में इसकी वज़ाहत की है - काश यह मुसलमान अपनी जहालत को खत्म करने के लिए इन किताबों का हवाला लेते। शायद उन्होंने लिया लेकिन सच छुपाने का फ़ैसला किया!
इब्न हजर अल-हैथमी और इब्न हजर अल-असकलानी जैसे उलेमा ने इन हदीसों की तशरीह की है। उनके मुताबिक, इन हदीसों का मकसद यह था कि यहूदी और ईसाई अपनी कब्रों को इबादत की जगह के तौर पर इस्तेमाल करते थे, और मुसलमानों को इस अमल से मना किया गया था ताकि वे कब्रों को माबूद न बना लें।
(फतह अल-बारी जिल्द ३ सफ़ा २०८)
यहां तक कि इब्न हिब्बान, जो अक्सर उलेमा के नजदीक बुखारी और मुस्लिम के बाद सबसे मुअतबर शुमार होते हैं, उन्होंने इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा (अ) की कब्र की ज़ियारत की मिसाल दी है और कहा है कि उनकी ज़ियारत करते वक्त उन्होंने हमेशा अपनी दुआओं का जवाब पाया। (किताब अल-त्सिक़ात, जिल्द ८, सफ़ा ४५७, हदीस १४४११)
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