पिछले दिनों पूरे विश्व में मोहर्रम के अवसर पर हज़रत इमाम
हुसैन की शहादत की याद को ताज़ा करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
भारत में भी इस अवसर पर तरह-तरह के गमगीन आयोजन किए गए। इस वर्ष पहली बार
मुझे भी बिहार के दरभंगा ज़िले में स्थित अपने गांव में मोहर्रम के दौरान
रहने का अवसर मिला। यहां नवीं व दसवीं मोहर्रम के दिन अर्थात् मोहर्रम के
शोकपूर्ण आयोजन के दो प्रमुख दिनों के दौरान कुछ अजीबोगरीब नज़ारे देखने को
मिले जिन्हें अपने पाठकों के साथ सांझा करना चाहूंगी।
मोहर्रम के जुलूस में जहां शिया समुदाय के लोग अपना खून अपने हाथों से बहाते,अपने सीने पर मातम करते, हज़रत इमाम हुसैन की याद में नौहे पढ़ते तथा ज़ंजीरों व तलवारों से सीनाज़नी करते हुए अपने-अपने हाथों में अलम, ताबूत व ताज़िए लेकर करबला की ओर आगे बढ़ रहे थे वहीं इसी जुलूस को देखने वालों का भारी मजमा भी मेले की शक्ल में वहां मौजूद था। ज़ाहिर है इस भीड़ में अधिकांश संख्या उन पारंपरिक दर्शकों की थी जो इस अवसर पर प्रत्येक वर्ष इस जुलूस को देखने के लिए दूर-दराज से आकर यहां एकत्रित होते हैं। अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से होकर गुज़रने वाले इस जुलूस में भारी पुलिस प्रबंध, आला प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी तथा दंगा निरोधक दस्ते के विशेष पुलिस वाहन देखकर सहसा मुझे उत्सुकता हुई कि आिखर इमाम हुसैन का गम मनाने वालों तथा उनके नाम पर अपना खून व आंसू बहाने वालों को किस धर्म या जाति या समुदाय विशेष के लोगों से खतरा हो सकता है जिसके कारण इतने प्रशासन को भारी पुलिस बंदोबस्त करने पड़े? इसके पूर्व मैंने दिल्ली व इलाहाबाद जैसे शहरों में भी मोहर्रम के जलसे व जुलूस आदि बहुत निकट से देखे हैं। परंतु इस प्रकार दंगा निरोधक दस्ते के रूप में विशेष सुरक्षा बलों की तैनाती इत्तेफाक से कहीं नहीं देखी। जब इस पुलिस बंदोबस्त के कारणों की पड़ताल की गई तो पता यह चला कि हिंदू समुदाय के लेाग जहां मोहर्रम के अवसर पर जुलूस में अपना पूरा सहयोग देते हैं तथा जुलूस के अंत तक साथ-साथ रहते हैं वहीं इसी गांव के कुछ वहाबी सोच रखने वाले मुस्लिम समुदाय के ही लोग हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद में निकाले जाने वाले इस जुलूस का विरोध करने का प्रयास करते हैं। गोया मोहर्रम के इस शोकपूर्ण आयोजन को किसी दूसरे धर्म-जाति या समुदाय से नहीं बल्कि स्वयं को वास्तविक मुसलमान बताने वाले वहाबी वर्ग के लोगों से ही सबसे बड़ा खतरा है।
जब 10 मोहर्रम का यह जुलूस नौहा-मातम करता हुआ पूरे गांव का चक्कर लगाने के बाद इमामबाड़ा होते हुए करबला की ओर चला तो बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से इस जुलूस में हिंदू समुदाय के लोगों की सक्रिय भागीदारी देखने को मिली। इमामबाड़े के आगे से जुलूस का सबसे अगला छोर हिंदू समुदाय के लोगों ने ढोल नगाड़े व मातमी धुनें बजाने वाले साज़ के साथ संभाला तो हिंदुओं के एक दूसरे ग्रुप ने ‘झरनी’ क ेनाम से प्रसिद्ध मैथिली भाषा में कहा गया शोकगीत पढऩा शुरु किया। अपने दोनों हाथों में डांडियारूपी डंडे लिए लगभग आधा दर्जन हिंदू व्यकित शोक धुन के साथ झरनी पढ़ रहे थे। पता चला कि हिंदू समुदाय के लोग गत् सैकड़ों वर्षों से इस गांव में इसी प्रकार शिया समुदाय के साथ मिल कर जुलूस की अगवानी करते हैं तथा मैथिली भाषा में झरनी गाकर शहीद-ए-करबला हजऱत इमाम हुसैन को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। निश्चित रूप से सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश करने वाले ऐसे वातावरण की ही देन है कि इस क्षेत्र में आज तक कभी भी हिंदू-मुस्लिम तनाव देखने को नहीं मिला। जबकि वहीं पर शिया व सुन्नी समुदाय के बीच मधुर संबंध होने के बावजूद कुछ ऐसी शक्तियां तेज़ी से सिर उठाती जा रही हैं जोकि पारंपरिक सद्भाव को ठेस पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं।
इस तनावपूर्ण वातावरण को देखकर ज़ेहन में यह सवाल भी उठा कि आखि़र वहाबियत के पैरोकार हज़रत हुसैन की शहादत पर गम क्यों नहीं मनाते? आखि़र वहाबी विचारधारा के लोग भी तो हज़रत मोहम्मद के उतने ही बड़े चाहने वाले हैं जितने कि अन्य मुस्लिम वर्गों के लोग स्वयं को बताते हैं? यदि करबला की घटना का जायज़ा लिया जाए तो सीधेतौर पर यह नज़र आता है कि स्वयं को मुस्लिम शासक कहने वाले यज़ीद के लाखों की संख्या के सशस्त्र सीरियाई सैनिकों ने चौदह सौ वर्ष पूर्व पैगंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे तथा चौथे इस्लामी खलीफा हज़रत अली के पुत्र हज़रत इमाम हुसैन के छोटे से परिवार को बड़ी ही बेरहमी व बेदर्दी के साथ करबला के मैदान में केवल इसीलिए शहीद कर दिया था क्योंकि हज़रत इमाम हुसैन यज़ीद जैसे दुष्ट,क्रूर तथा अपराधी व पापी प्रवृति के शासक को सीरिया जैसे इस्लामी देश के सिंहासन पर बैठने की धार्मिक मान्यता नहीं दे रहे थे। ज़ाहिर है हज़रत इमाम हुसैन इस दूरअंदेशी के साथ ही ऐसा निर्णय ले रहे थे ताकि भविष्य में उनपर यह इल्ज़ाम न आने पाए कि उन्होंने यज़ीद जैसी गैर इस्लामी सोच रखने वाले दुष्ट शासक को इस्लामी साम्राज्य के बादशाह के रूप में मान्यता देकर इस्लाम को कलंकित व अपमानित कर दिया। वे इस्लाम को हज़रत मोहम्मद के वास्तविक व उदारवादी तथा परस्पर सहयोग की भावना रखने वाले इस्लाम के रूप में दुनिया के समक्ष पेश करना चाहते थे। हज़रत हुसैन की बेशकीमती कुर्बानी के बाद हुआ भी यही कि यज़ीद करबला की जंग तो ज़रूर जीत गया परंतु एक राक्षस व रावण की तरह उसके नाम का भी अंत हो गया। जिस प्रकार आज दुनिया में कोई अपने बच्चे का नाम रावण रखना पसंद नहीं करता उसी प्रकार कोई माता-पिता अपने बच्चे का नाम यज़ीद भी नहीं रखते।
फिर आिखर वहाबियत की विचारधारा गम-ए-हुसैन मनाने का विरोध क्यों करती है? वहाबियत क्यों नहीं चाहती कि यज़ीद के दुरूस्साहसों, उसकी काली करतूतों तथा उसके दुष्चरित्र को उजागर किया जाए तथा हज़रत इमाम हुसैन की अज़ीम कुर्बानी के कारणों को दुनिया के सामने पेश किया जाए? मैंने इस विषय पर भी गहन तफ्तीश की। वहाबियत के पैरोकारों ने अपने पक्ष में कई दलीलें पेश कीं। स्थानीय स्तर पर सुनी गई उनकी दलीलों का हवाला देने के बजाए मैं यहां वहाबी विचारधारा के देश के सबसे विवादित व्यक्ति ज़ाकिर नाईक के विचार उद्धृत करना मुनासिब समझूंगी। ज़ाकिर नाईक यज़ीद को न केवल सच्चा मुसलमान मानते हैं बल्कि उसे वह जन्नत का हकदार भी समझते हैं। ज़ािकर यज़ीद को बुरा-भला कहने वालों, उसपर लानत-मलामत करने वालों की भी आलोचना करते हैं। नाईक के अनुसार यज़ीद मुसलमान था और किसी मुसलमान पर दूसरे मुसलमान को लानत कभी नहीं भेजनी चाहिए। वहाबियत के भारत के प्रमुख स्तंभ व मुख्य पैरोकार समझे जाने वाले ज़ाकिर नाईक के यज़ीद के विषय में व्यक्त किए गए विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाबियत कैसी विचारधाराओं की पोषक है? यज़ीदियत की या हुसैनियत की? यहां ज़ाकिर नाईक के या यूं कहा जाए कि वहाबियत के पैराकारों के मुताबिक तो अजमल कसाब, ओसामा बिन लाडेन, एमन अल जवाहिरी तथा हाफ़िज़ सईद जैसे मानवता के पृथ्वी के सबसे बड़े गुनहगारों को भी सिर्फ इसलिए बुरा-भला नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह मुसलमान हैं?
वहाबी समुदाय के लोगों के मोहर्रम के जुलूस का विरोध करने के इन प्रयासों के बाद मेरी समझ में आया कि आखि़र पाकिस्तान,इराक और अफगानिस्तान में क्योंकर मोहर्रम के जुलूसों पर आत्मघाती हमले होते हैं? क्यों इमामबाड़ों, शिया, अहमदिया व बरेलवी समुदाय की मस्जिदों,दरगाहों व इमामबाड़ों को आत्मघाती हमलों का निशाना बनाया जाता है? दुनिया को भी यह समझने में अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए कि वास्तव में इस्लाम को हिंसा के रास्ते पर ले जाने वाली शक्तियां यज़ीद से लेकर अजमल कसाब तक तथा उस समय के यज़ीद के पैरोकारों से लेकर कसाब को जन्नत भेजने की कल्पना करने वालों तक कौन हैं? केवल संख्या बल के आधार पर किसी फैसले पर पहुंचना मुनासिब नहीं है। हुसैनियत उस इस्लाम का नाम है जिसने सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए एक क्रूर, शक्तिशाली शासक का डटकर विरोध कर इस्लाम के वास्तविक स्वरूप की रक्षा करने के लिए अपने परिवार के 72 सदस्यों को एक ही दिन में करबला में कुर्बान कर दिया और इस्लाम की आबरू बचा ली। जबकि यज़ीदियत इस्लाम के उस स्वरूप का नाम है जहां सत्ता व सिंहासन के लिए ज़ुल्म है, जब्र है, आतंक व हिंसा है तथा अपनी बात जबरन मनवाने हेतु खूनी खेल खेले जाने की एक पुरानी परंपरा है। अब इन में से इस्लाम का एक ही स्वरूप सत्य हो सकता है दोनों हरगिज़ नहीं। बेहतर हो कि इसका निष्पक्ष निर्णय दूसरे धर्म एवं समुदाय के पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी तथा चिंतक करें न कि वहाबियत, शिया, बरेलवी या अहमदिया समुदाय से संबंध रखने वाले मुल्ला-मौलवी लोग।
मोहर्रम के जुलूस में जहां शिया समुदाय के लोग अपना खून अपने हाथों से बहाते,अपने सीने पर मातम करते, हज़रत इमाम हुसैन की याद में नौहे पढ़ते तथा ज़ंजीरों व तलवारों से सीनाज़नी करते हुए अपने-अपने हाथों में अलम, ताबूत व ताज़िए लेकर करबला की ओर आगे बढ़ रहे थे वहीं इसी जुलूस को देखने वालों का भारी मजमा भी मेले की शक्ल में वहां मौजूद था। ज़ाहिर है इस भीड़ में अधिकांश संख्या उन पारंपरिक दर्शकों की थी जो इस अवसर पर प्रत्येक वर्ष इस जुलूस को देखने के लिए दूर-दराज से आकर यहां एकत्रित होते हैं। अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से होकर गुज़रने वाले इस जुलूस में भारी पुलिस प्रबंध, आला प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी तथा दंगा निरोधक दस्ते के विशेष पुलिस वाहन देखकर सहसा मुझे उत्सुकता हुई कि आिखर इमाम हुसैन का गम मनाने वालों तथा उनके नाम पर अपना खून व आंसू बहाने वालों को किस धर्म या जाति या समुदाय विशेष के लोगों से खतरा हो सकता है जिसके कारण इतने प्रशासन को भारी पुलिस बंदोबस्त करने पड़े? इसके पूर्व मैंने दिल्ली व इलाहाबाद जैसे शहरों में भी मोहर्रम के जलसे व जुलूस आदि बहुत निकट से देखे हैं। परंतु इस प्रकार दंगा निरोधक दस्ते के रूप में विशेष सुरक्षा बलों की तैनाती इत्तेफाक से कहीं नहीं देखी। जब इस पुलिस बंदोबस्त के कारणों की पड़ताल की गई तो पता यह चला कि हिंदू समुदाय के लेाग जहां मोहर्रम के अवसर पर जुलूस में अपना पूरा सहयोग देते हैं तथा जुलूस के अंत तक साथ-साथ रहते हैं वहीं इसी गांव के कुछ वहाबी सोच रखने वाले मुस्लिम समुदाय के ही लोग हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद में निकाले जाने वाले इस जुलूस का विरोध करने का प्रयास करते हैं। गोया मोहर्रम के इस शोकपूर्ण आयोजन को किसी दूसरे धर्म-जाति या समुदाय से नहीं बल्कि स्वयं को वास्तविक मुसलमान बताने वाले वहाबी वर्ग के लोगों से ही सबसे बड़ा खतरा है।
जब 10 मोहर्रम का यह जुलूस नौहा-मातम करता हुआ पूरे गांव का चक्कर लगाने के बाद इमामबाड़ा होते हुए करबला की ओर चला तो बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से इस जुलूस में हिंदू समुदाय के लोगों की सक्रिय भागीदारी देखने को मिली। इमामबाड़े के आगे से जुलूस का सबसे अगला छोर हिंदू समुदाय के लोगों ने ढोल नगाड़े व मातमी धुनें बजाने वाले साज़ के साथ संभाला तो हिंदुओं के एक दूसरे ग्रुप ने ‘झरनी’ क ेनाम से प्रसिद्ध मैथिली भाषा में कहा गया शोकगीत पढऩा शुरु किया। अपने दोनों हाथों में डांडियारूपी डंडे लिए लगभग आधा दर्जन हिंदू व्यकित शोक धुन के साथ झरनी पढ़ रहे थे। पता चला कि हिंदू समुदाय के लोग गत् सैकड़ों वर्षों से इस गांव में इसी प्रकार शिया समुदाय के साथ मिल कर जुलूस की अगवानी करते हैं तथा मैथिली भाषा में झरनी गाकर शहीद-ए-करबला हजऱत इमाम हुसैन को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। निश्चित रूप से सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश करने वाले ऐसे वातावरण की ही देन है कि इस क्षेत्र में आज तक कभी भी हिंदू-मुस्लिम तनाव देखने को नहीं मिला। जबकि वहीं पर शिया व सुन्नी समुदाय के बीच मधुर संबंध होने के बावजूद कुछ ऐसी शक्तियां तेज़ी से सिर उठाती जा रही हैं जोकि पारंपरिक सद्भाव को ठेस पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं।
इस तनावपूर्ण वातावरण को देखकर ज़ेहन में यह सवाल भी उठा कि आखि़र वहाबियत के पैरोकार हज़रत हुसैन की शहादत पर गम क्यों नहीं मनाते? आखि़र वहाबी विचारधारा के लोग भी तो हज़रत मोहम्मद के उतने ही बड़े चाहने वाले हैं जितने कि अन्य मुस्लिम वर्गों के लोग स्वयं को बताते हैं? यदि करबला की घटना का जायज़ा लिया जाए तो सीधेतौर पर यह नज़र आता है कि स्वयं को मुस्लिम शासक कहने वाले यज़ीद के लाखों की संख्या के सशस्त्र सीरियाई सैनिकों ने चौदह सौ वर्ष पूर्व पैगंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे तथा चौथे इस्लामी खलीफा हज़रत अली के पुत्र हज़रत इमाम हुसैन के छोटे से परिवार को बड़ी ही बेरहमी व बेदर्दी के साथ करबला के मैदान में केवल इसीलिए शहीद कर दिया था क्योंकि हज़रत इमाम हुसैन यज़ीद जैसे दुष्ट,क्रूर तथा अपराधी व पापी प्रवृति के शासक को सीरिया जैसे इस्लामी देश के सिंहासन पर बैठने की धार्मिक मान्यता नहीं दे रहे थे। ज़ाहिर है हज़रत इमाम हुसैन इस दूरअंदेशी के साथ ही ऐसा निर्णय ले रहे थे ताकि भविष्य में उनपर यह इल्ज़ाम न आने पाए कि उन्होंने यज़ीद जैसी गैर इस्लामी सोच रखने वाले दुष्ट शासक को इस्लामी साम्राज्य के बादशाह के रूप में मान्यता देकर इस्लाम को कलंकित व अपमानित कर दिया। वे इस्लाम को हज़रत मोहम्मद के वास्तविक व उदारवादी तथा परस्पर सहयोग की भावना रखने वाले इस्लाम के रूप में दुनिया के समक्ष पेश करना चाहते थे। हज़रत हुसैन की बेशकीमती कुर्बानी के बाद हुआ भी यही कि यज़ीद करबला की जंग तो ज़रूर जीत गया परंतु एक राक्षस व रावण की तरह उसके नाम का भी अंत हो गया। जिस प्रकार आज दुनिया में कोई अपने बच्चे का नाम रावण रखना पसंद नहीं करता उसी प्रकार कोई माता-पिता अपने बच्चे का नाम यज़ीद भी नहीं रखते।
फिर आिखर वहाबियत की विचारधारा गम-ए-हुसैन मनाने का विरोध क्यों करती है? वहाबियत क्यों नहीं चाहती कि यज़ीद के दुरूस्साहसों, उसकी काली करतूतों तथा उसके दुष्चरित्र को उजागर किया जाए तथा हज़रत इमाम हुसैन की अज़ीम कुर्बानी के कारणों को दुनिया के सामने पेश किया जाए? मैंने इस विषय पर भी गहन तफ्तीश की। वहाबियत के पैरोकारों ने अपने पक्ष में कई दलीलें पेश कीं। स्थानीय स्तर पर सुनी गई उनकी दलीलों का हवाला देने के बजाए मैं यहां वहाबी विचारधारा के देश के सबसे विवादित व्यक्ति ज़ाकिर नाईक के विचार उद्धृत करना मुनासिब समझूंगी। ज़ाकिर नाईक यज़ीद को न केवल सच्चा मुसलमान मानते हैं बल्कि उसे वह जन्नत का हकदार भी समझते हैं। ज़ािकर यज़ीद को बुरा-भला कहने वालों, उसपर लानत-मलामत करने वालों की भी आलोचना करते हैं। नाईक के अनुसार यज़ीद मुसलमान था और किसी मुसलमान पर दूसरे मुसलमान को लानत कभी नहीं भेजनी चाहिए। वहाबियत के भारत के प्रमुख स्तंभ व मुख्य पैरोकार समझे जाने वाले ज़ाकिर नाईक के यज़ीद के विषय में व्यक्त किए गए विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाबियत कैसी विचारधाराओं की पोषक है? यज़ीदियत की या हुसैनियत की? यहां ज़ाकिर नाईक के या यूं कहा जाए कि वहाबियत के पैराकारों के मुताबिक तो अजमल कसाब, ओसामा बिन लाडेन, एमन अल जवाहिरी तथा हाफ़िज़ सईद जैसे मानवता के पृथ्वी के सबसे बड़े गुनहगारों को भी सिर्फ इसलिए बुरा-भला नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह मुसलमान हैं?
वहाबी समुदाय के लोगों के मोहर्रम के जुलूस का विरोध करने के इन प्रयासों के बाद मेरी समझ में आया कि आखि़र पाकिस्तान,इराक और अफगानिस्तान में क्योंकर मोहर्रम के जुलूसों पर आत्मघाती हमले होते हैं? क्यों इमामबाड़ों, शिया, अहमदिया व बरेलवी समुदाय की मस्जिदों,दरगाहों व इमामबाड़ों को आत्मघाती हमलों का निशाना बनाया जाता है? दुनिया को भी यह समझने में अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए कि वास्तव में इस्लाम को हिंसा के रास्ते पर ले जाने वाली शक्तियां यज़ीद से लेकर अजमल कसाब तक तथा उस समय के यज़ीद के पैरोकारों से लेकर कसाब को जन्नत भेजने की कल्पना करने वालों तक कौन हैं? केवल संख्या बल के आधार पर किसी फैसले पर पहुंचना मुनासिब नहीं है। हुसैनियत उस इस्लाम का नाम है जिसने सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए एक क्रूर, शक्तिशाली शासक का डटकर विरोध कर इस्लाम के वास्तविक स्वरूप की रक्षा करने के लिए अपने परिवार के 72 सदस्यों को एक ही दिन में करबला में कुर्बान कर दिया और इस्लाम की आबरू बचा ली। जबकि यज़ीदियत इस्लाम के उस स्वरूप का नाम है जहां सत्ता व सिंहासन के लिए ज़ुल्म है, जब्र है, आतंक व हिंसा है तथा अपनी बात जबरन मनवाने हेतु खूनी खेल खेले जाने की एक पुरानी परंपरा है। अब इन में से इस्लाम का एक ही स्वरूप सत्य हो सकता है दोनों हरगिज़ नहीं। बेहतर हो कि इसका निष्पक्ष निर्णय दूसरे धर्म एवं समुदाय के पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी तथा चिंतक करें न कि वहाबियत, शिया, बरेलवी या अहमदिया समुदाय से संबंध रखने वाले मुल्ला-मौलवी लोग।
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